” पर्दा “
घर में है जब पर्दा , बाहर क्यों बेपर्दा …….
आखिर इंसान हूँ मै, देखता क्या न करता !!
तेरा महकना भी लाज़मी है वक्त के मुताबिक,
मेरे तो अपने हैं यहाँ तू ही तेरा करता धरता !!
वही चमड़ी वही खाल है तेरी ,
वही आँत है, वही बाल तेरा !
घर में है जब पर्दा , बाहर क्यों बेपर्दा……..
आखिर इंसान हूँ मैं, देखता क्या न करता !!
तेरी सोच को मैं सलाम करूँ ,
तेरे इस होड़ को मैं प्रणाम करूँ !
समझ नहीं आता , तुझे देख कर कभी
तुझ जैसे ही हो रहे तुझे देख कर सभी !!
घर में है जब पर्दा , बाहर क्यों बेपर्दा……..
आखिर इंसान हूँ मैं, देखता क्या न करता !!
रोक दे अभी छोड़ दे अभी ये जिस्म को दिखाना ये जिस्म को बहलाना,
दुनिया है ये दुनिया हर कोई नहीं एक जैसा ये तूने भी है माना !!
घर में है जब पर्दा , बाहर क्यों बेपर्दा……..
आखिर इंसान हूँ मैं, देखता क्या न करता !!
…….. बृज