पर्णकुटी केर दीपोत्सव
पर्णकुटी केर दीपोत्सव
पर्णकुटी मे एकसी बैसी,
बैदेही केर दिव्यरूप।
अन्हार वनक बीच भँवर,
भक्ति केर अमिट प्रीत अधीर।
ओ रूप निहार रहल नभ,
नयन में शक्ति संजोने राजदुलारी।
प्रेम-बैराग्यक संगम समाहित,
साधनाक दृढ़ कण में अह्लादित।
वनक विरासत में एक दीप,
ज्योतिर्मय जे शीतलर्मय।
बाहरी सुन्दरतासँ सुरत,
नयन विश्वासक मुरत ।
एकहि पात पीतर पूजा,
धरा केर भाषा मैथिली हो ।
धरतीपुत्री जानकी जोगी,
संसार जीवने की माया।
पवनक हर श्वास गंगा की धारा,
ओकरे आँचर छूइते नमन।
पुरखाक स्मृति जागृत कण,
भारतीक संजीद अमृत पावन।
पिअर परिधान सँ लिपटल,
धरती केर शील अपनौने।
तन-मन सँ समर्पित एहेन,
प्रेमक आदर्श में गढ़ने भारत माता।
वनक पशु-पक्षी झुके लागल,
ओकरे विश्वासक तरंग पर।
चारू दिशि गूँजवेदी,
मायक आशीर्वाद आदर भरल।
विरहक अग्नि में धधकल छी,
भीतर सँ दृढ़ आ अडिग।
वेदक पथ पर प्रजातंत्र तले,
धरतीक अमृत धार छलकल छल।
प्रत्येक श्वास में प्रेम बसल,
प्रणयक गहिर मधुर रस।
बिन प्रियतम अधूरा सखी ,
तइयो भक्ति दीप अविरल।
शब्द बिन मौनक भाषा,
सलहेशक गाथा लिखैत।
राधा बनि प्रति मुरत,
प्रेमक साक्षात आरती सजैने छी ।
प्रेम में ने बन्धन कोनो,
जे नैतिकता के मूरत ।
वैदेही के ई प्रेम में,
जग में मधुबन की धारा
ई साधना माटि के अनूठी,
अमृता के चीर जाएत।
प्रेम में तपैत वैदेही,
जग-जग दीप जलाओत
शुभ शुम हो दिआबाती ।
—श्रीहर्ष—-