परिस्थित
नवल आज पहिल बार
निकला घर से फिर एक बार
फलते फूलते वट वृक्ष देखकर
हर्षित होकर मन कि रेख
सरिता के किनारे खडा हुआ
मानव के कलह देख रहा
एक वस्तु कंही पाने के खातिर
मार पीट करने को आतुर
धन धान्य हुआ बहुमूल्य
किन्तु सच्चे पुरूषो का न मूल्य
पर लाख बुराइया होवे चाहे
धन के लालच में नमन करे भाई
चाहे राज्य नष्ट कारी राजा होवे
प्रजा सुख में न होवे
फिर भी किर्ति उसी की होवे
पर कण-कण भर गया अन्धकार में
सूरज उग आये एक बार में
मानव चाहे करे सवेरा
फिर चिडियो का होवे डेरा
त्यागे जो स्वार्थ को अपने
पर-उपकारी बन जाये
दीन दुखियो की सेवा खातिर
ईश कृपा भी छाये उस पर
पर किसने कुछ देखा
पर पडती दुख की रेखा
समझ नही फिर भी आता
तब ईश सभी को भाता
फिर निन्दक बढते उसकी और
कर्म किये तुमने कुछ और
दुख में धीरज न धरवावे
पर खुशियो मेें ईर्ष्या करवावे
एक पडोसी हुये हमारे
उठते वह सुवह सबेरे
घर में है, खाने को लाले
पर बैठक निन्दको संग डारे
देख पडोसी को जलते
निवाले उसी के घर से मिलते
फिर भी निन्दा उसी की करते
घर, घर की एक कहानी
जग में बढ गयी उतातानी
किससे करे दया की ओठ
पडती जाती हर एक मोड
एक पडोसी सब साज्य होवे
पर पडोसी को कुछ न देवे
याद आती दापर की कहानी
कहगे ईश पाण्डवो से वानी
बलबान सभी में साज्य होगा
पर निर्बल का न मन होगा
यही बढ रहा इस जग में
आ रही परिस्थितया और भी आगे