परिवार
परिवार हैं आसमान,
और
उसमें चलती उलझनें ही
बादल हैं।
इनके बरसने से ,
सरस चल रहा संबंध ,
नीरस और उग्र होकर,
आपसी लंबी टकराहट,
की देती है आहट।
ठीक उसी तरह जैसे,
बरसात में कौंधती है बिजली ,
भीषण -गर्ज के साथ,
और बरसता है आसमान,
अंधेरेपन से लीपे,
फिर भी,
सफेद बूंदों के साथ।
उन बूंदों में होता है ,
अनुताप वैसा,
जैसा द्रव के ,
वाष्पीकरण का,
100 डिग्री का अहसास,
उबाल भरा ।
ये टकराहट दंभ के होते हैं ,
खंभे,
इनसे लंबी – ऊंची ,
इमारतें बनती है,
घमंड की।
जिसकी नींव अनेक मतलबी ,
लबों के लफ्जों से मजबूत है,
अटूट है।
इनमें छुपे होते हैं ,
अरमान अपार।
लेकिन ,
बरसात तो तीन माह,
मेहमान है ,
वार्षिक ताप नियंत्रित करने,
लौट आती है,
उसी समय।
पर सरस चलते रिश्ते ,
बरस – बरस बरसते बूंदों की तरह,
शीतलता नहीं ,
बल्कि ताप ही देते हैं।
ये पल में बिखरे हुए ,
मन के मनके,
दिनों,
सप्ताहों,
महीनों,
और
वर्षों के वर्षों में भी,
जुड़कर,
हर्ष की मिठास को ,
बरसाते नहीं है।
अत: इस असमान,
आसमान परिवार के ,
बदलेपन के बादलों को ,
समय रहते अपने ,
सूझ रुपी वायु से विच्छिन्न कीजिए,
कि देर से सवेरा न हो।।
## समाप्त