परिवर्तन ही वर्तमान चिरंतन
चिर निरंतर आदिकाल से नियम है प्रकृति का परिवर्तन
भूतकाल अपरिवर्तनीय, भविष्य अनिश्चित
परिवर्तन ही वर्तमान चिरंतन |
उलझे, बेताला, बेसुरे- परिवेश में
क्या वांछनीय है दिशाहीन बदलाव ?
विभात्स है घावों का रिसाव |
कभी ऐसा था
सघन वन, मदमस्त बयार
हरित ग्राम, मानवता बरकरार,
दूध दही की प्रचुर भरमार |
वृक्षों पर पके वो फल
यौवन के किस्से निश्छल !
अब ऐसा है
विलुप्त होती हरियाली, अति या अनावृष्टि
सीमेंट के जंगल, हाहाकार करती सृष्टि,
हवस की आग में बदन तौलती दृष्टि |
रसायनों से पकाए फल, कहां गया बचपन निश्छल !
परंतु ऐसा भी तो था
सती, देवदासी, जौहर, रति-बनाकर नारी,
भीषण युद्धों की तैयारी,
दूर ग्राम में
बीहड़ उबड़ खाबड़ यात्रा के पल
अब तो ऐसा है ना
नारी नवशक्ति का केतन,
पुनः जागृत अभिनव चेतन,
विश्व एक सूत्र में बंध रहा है
विज्ञान दीर्घायु कर रहा है !