परमसत्ता
‘कर्मयोग’ परम्परागत है
नवसृजन नहीं
सूर्य-मनु-इक्ष्वाकु सबने इसे अंगीकार किया है
पर क्रमशः
नष्ट हो गया
यह वेदान्तवर्णित उत्तम रहस्य.
परमसत्ता
अजन्मा होते हुए भी
जन्मता है विविध रूपों में, काल में
‘धर्म’ की शिथिलता
‘अधर्म’ का उत्थान
इस परमसत्ता की
उत्पत्ति
प्रकटन का आधार है.
वह जन्मता है
प्रत्येक युग में
काल-खण्ड में
शिथिल धर्म के पुनस्र्थापन
दुष्टों के विनाश
और स्वजनों के रक्षार्थ,
प्रश्न विश्वास का है
विश्वास की मात्रा
प्रतिफल की मात्रा का निर्धारक है
कर्म क्या है ?
अकर्म क्या है?
इन्हें यथार्थरूप में
परिभाषित करना
यह कठिन है
फिर कौन परिभाषित करता है ?
यह परमसत्ता या कोई और
या ‘ज्ञान’
ज्ञानाग्नि से दहित
कामना, संकल्प रहित
कर्म का धारक
पण्डित कहलाता है.
‘ज्ञान’ से पवित्र
कुछ है क्या ?
कुछ भी तो नहीं
यह ज्ञान ही है जो
कर्म-अकर्म के भेद को रेखांकित करता है
यह ज्ञान ही है
जो कर्म-योग को प्रोत्साहित करता है
और मनुष्य को
पहुँचाता है
‘ब्रह्म’ तक
‘मोक्ष’