नौका विहार
नौका विहार और इंसान की इंसानियत में,
में असंख्य समानताएं, विषमताएं हैं।
नौका पानी पर चल रही है तो सब ठीक,
जरा सा सुराख होने पर डगमगाना शुरू हो जाती है,
ठीक उसी प्रकार इंसान की इंसानियत भी है,
जब तक इन्सान की इन्सानियत में सत्यनिष्ठा,
प्रेम, कर्मठता, कर्मण्यता है तब तक तो ठीक है,
किंतु जैसे ही इन गुणों में बदलाव आता है,
इन्सान को इन्सानियत रूपी नौका,
डगमगाना शुरू हो जाती है।
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मानव की अस्तित्व है इन्सानियत रूपी नौका,
सत्कर्मों का लेखा – जोखा है यह नौका,
किंतु जब तक बेसुराख है यह नौका तब तक सब ठीक,
वरना सुराख पड़ने पर
अपने साए को भी शरीर से अलग कर देती है यह नौका।
इस नौका के सत्कर्म दो चपु हैं,
जो दुखमय भवसागर में संतुलन बनाते हैं,
जब दुष्कर्मों की सेंध लग जाती इस नौका पर तो,
नौका में सुराख पड़ना स्वाभाविक है,
सुराख पड़ने से नौका पर सवार नौका विहार प्राणी,
का लड़खड़ाना इस बात का प्रतीक है कि,
दीया – बाती के सम्मिलन का समय आ गया है,
विनाशकारी समय पास है और,
नौका विहार करने वाले प्राणी की नौका,
समुद्र में समाहित होने का समय समीप है।
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नौका विहार और इंसान की इंसानियत,
सत्कर्मों और दुष्कर्मों के संघर्षों की गाथा है,
समुद्र में पानी और आत्मा में रूहानियत अस्तित्व जरूरी है,
जब दोनों समाप्त हो जाते हैं,
आत्मा परमात्मा में मिल जाती है,
और नौका विहार करने वाला इन्सान,
प्रभु का अंश बन जाता है।
तब धरा और आकाश के मध्य क्षितिज रेखा ,
में भी समानता आ जाती है।
इंसान का रूहानियत सफ़र अपनी मंजिल के,
पायदान पर पहुंच जाता है।
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डॉ प्रवीण ठाकुर
भाषा अधिकारी,
निगमित निकाय भारत सरकार
शिमला हिमाचल प्रदेश।