पनघट और पगडंडी
एक साधिका सी
लगती है ,
जब वो ,
सर पर, मटका रखे,
पगडंडी से होते हुए ,
पनघट तक जाती है।
उस समय,
पगडंडी के मन को
छू लेते उसके पांव ,
मिट्टी और कंकड में
एक मीठे गीत सी ,
हलचल मचाते हैं ।
लौटते समय वो,
जरा -जरा नीर छलकाती
जाती है ,
उसी पगडंडी के
आंचल में ठंडक भरती जाती है।
और पगडंडी भी
शगुन के तौर पर
दूब घास का
गुच्छा लहरा देती है
उसके तलवो को
सहला देती है ,
इस तरह हर रोज
पगडंडी से पनघट तक
दोनो का
मौन संवाद और
स्नेहिल रिश्ता
कायम रहता है ।