पत्ता की आत्मकथा
पल्लव/पत्ते की आत्मकथा
चाहत बने थे लोग बाग,
जब मुझमें भरी जवानी थी।
नव पल्लव में मनमोहक,
जवानी मेरी हरियाली थी।।
पीली होकर पतित हुईं,
अंत समय ललामी थी।
सृष्टि लीला अजब गजब,
साथ सहेली डाली थी।।
आते थे ,हर्षाते थे,
पथिक ,छाया में सो जाते।
शांति सुकुन पाकर राही,
मेरी महिमा गाते।।
मै भी मदहोश,होश में ,
गीत सुंदर गाती थी,।
चाहत बने थे लोग बाग,,
जब मुझमें भरी जवानी थी।।
शांति सुकुन छाया देकर,
कितनों का मन बहलाई।
आते ही बसंत ऋतु का, पतझड़ पत्ते कहलाई।।
त्याग दी जीवन की खुशियां,
वक्त की मारी थी।
चाहत बने थे लोग बाग,
जब मुझमें भरी जवानी थी।।
स्वच्छ हृदय से पथिक जनों, प्रेम पत्र भेजी हूं।
छुने चलीं थी सुर्य देव,
अंत धरती पर लेटी हूं।।
डॉ,विजय कन्नौजे