पतग की परिणीति
आकाश के आंचल में
पवन की ले बलैया
उड़ती हुई पतंग
बस एक पतंग नही है
जीवन का एक व्यापक
दर्शन और संदेश है।
वह निर्द्वन्द उड़ती प्रतीत
होती है
जबकि उसकी डोर कही
और ही होती है
अपने नियंता के हाथों की
कठपुतली बन
कभी इठलाती कभी
बल खाती है
लगता है जैसे अपने
पूर्ण श्रृंगार के साथ
सुदूर प्रियतम का
परिणय हेतु आमंत्रण
कर रही है।
जबकि सच्चाई है कि
वह किसी दूसरे के
हाथ मे खेल रही
होती है
जिसे न अपने
अतीत का पता है
न भविष्य का
न अपनी उत्पत्ति का
न अवसान का।
अचानक
अपने नियंता के
आक्रोश वश
वह लड़ पड़ती है
और कट कर अपनी
अनंत यात्रा पर
चल पड़ती है
जल पर गिर कर
गल जाती है
या अग्नि के मध्य
अपने को अर्पण कर
अपने नियंता का
स्वाभिमान को
संतुष्ट करती है।
जब कि नियंता का
क्या
वह एक दूसरी पतंग के साथ
खेलता है खेल
अपनी तृष्णा का।
निर्मेष ऐसे है अपने
जीवन-मृत्यु का
खेल अनवरत अनंत
समय तक चलता रहा है
चलता रहेगा ।
जिसने समझ लिया इसे
मोक्ष को पा लिया
नासमझों ने इसे बस
एक लौकिक खेल
समझ लिया।
कटी पतंग दे रही
जीवन दर्शन का एक
निरापद संदेश
कि आखिर जिसका अंत
एक दिन मिट्टी में
मिल जाना
या जल में गल जाना
या कि पावक में
जल जाना है
तो किस बात का
गुमान
हम आज तक इससे
है अंजान।
सत्य ही तो कहा है
की सत्य की इक्षा होती है
सब उसे जान ले
असत्य हमेशा डरता है कि
कही उसे कोई न
पहचान ले