पतंग
वो लहरा रही थी
वो उड़ान भर रही थी
दिल पाने को मचल रहा था
उसका घर आने का इंतजार था
ना जाने कौन उसे थामे था
उसकी राह में घर अनेक थे
मैं उतावला मचल रहा था
कब उन हाथों से मुक्त होगी
वो मेरी गिरफ़्त में होगी
वो स्वछंद सी हैं स्वछंद ही रहेगी
यही चाहत कब उसकी डोर मेरे हाथों में होगी
लक्ष्मण सिंह
जयपुर