पतंग
भरोसे पे तेरे…
बेखौफ उड़ती रही।
खुले आकाश में,
हवाओं से लड़ती रही।
तेरे हौसलों की ढील पर,
मगर.. बढ़ती रही !
ऊँचाइयाँ नभ छूती रहीं।
टूटा था विश्वास का धागा जो,
लुट गयी सरेआम,
और..लुटती रही ।
यूँ ही जीवन भर…
रंगीनियांँ लिए।
जिसने भी लूटा…
उसने उड़ाया मजाक सा।
तेरे बाँधे हुए कन्नो पर ।
मैं मचलती रही।
लुटती रही..ता-उम्र।
विश्वास की फितरत पर !
मगर हर बार छली गई!
मैं कटी.. पतंग जो…
मजबूत काँधों के…
मोहक..ऐतबार पर।
किस्मत की राह पर।
छली गई, छली गई!!
हर बार.. छली गई!!
मैं पतंग सी..हूँ कौन!!
__अलका गुप्ता ‘भारती’__