पढ़े-लिखे पर मूढ़
जाओ तुम चले जाओ,
अवमानना की नगरी में .
मुड़ -मुड़ कर क्यों ताक रहे हो
आशाओं की गगरी में ?
लौट जाओ फिर अंधकूप में
तुम्हें सत्य समझाए कौन !
पढ़े-लिखे पर, मूढ़ ही हो तुम
तुम्हें राह दिखलाए कौन ?
तुम नहीं अस्त्र किसी सत्ता के,
ना तुम वैरी के औजार !
मानव का तो रूप धरे हो ,
कर लो मानवता साकार I
बात-बात पर आगजनी कर ,
फूंक रहे राष्ट्र संपत्ति!
शांति से या कानून से
जाहिर करो जो है आपत्ति
कितना लहू बहा है सोचो ,
आजादी की चाह पर
देश की अस्मिता डाल रहे क्यूँ ?
बर्बादी की राह पर I
पंख लगा के मोम के तुम
जो सूरज तक जाओगे
पंख जला कर ,अपमानित हो
दु:ख ही दु:ख बस पाओगे!