पट्टी का मेला ! (स्मृति )
देवी और सज्जनों आप सभी को मेरा नमस्कार , मैं आप सभी का आभार प्रकट करते हुए वन्दन एवं अभिनन्दन करता हूँ । मेरे प्यारे दोस्तो ! आज मैं जीवन के बचपन के कुछ मार्मिक यादगार पल का वर्णन करने जा रहा हूँ । बचपन मे “मेला” शब्द को सुनते ही हर ग्रामीण बच्चे के जहन मे एक अजीब सी उत्साह ,उमंग, उत्सुकता एवं आनंद के हिलोरे उत्पन्न होने लगते है,मेले को देखने के लिए। गाँव मे मेला तो एक पर्व जैसा होता है, जो कॅुआर माह के विजय दशमी से प्रथम मेला प्रारम्भ होता है। उसके बाद गाँव के काॅली माँ के मन्दिर का मेला ,तो कही गाँव के प्राथमिक व उच्च माध्यमिक विद्यालय का मेला, तो कही गाँव के बाजार का मेला, ऐसे गाँव मे तमाम छोटे-छोटे मेले लगते हैं, गाँव मे अन्तिम मेला शिवरात्री के तेरस का मेला होता है। हमारे गाँव से महज चार किलो मीटर के दूरी पर पट्टी शहर का ऐतिहासिक मेला जो आज भी याद आता हैं, जिसे लगते सौ वर्ष से भी ज्यादा हो गया। इस मेले के लिए सबकी आँखों मे एक अलग सी ही चमक रहती थी। पट्टी के मेले मे गृहस्थी की सभी आवश्यकता के चीजे मिलती हैं। बच्चे से लेकर बुजुर्ग सभी पट्टी का मेला देखने जाया करते हैं। मेला एक हप्ते का होता था, मेले मे दुकाने बहुत दूर-दूर सेआया करती थी, इसलिए कपड़े की दुकान, फरनीचर की दुकान वगैरा एक महीना रहती थी। पट्टी का मेला अपने परिवार के साथ देखने के लिए, परदेशी शहर को छोड़कर अपने गाँव आ जाते थे, बहन-बेटियाँ अपने ससुराल से माईके आ जाती थी। बहुत-बहुत दूर-दूर से लोग पट्टी का मेला देखने आते थे। बच्चे दिन भर एक-दूसरे से बातें करते थे , हम मेले मे जायेगें हेलिकॉफ्टर खरीदेंगे , हवाई जहाज खरीदेंगे, कोई कहता हम रेल गाड़ी , बंदूक खरीदेंगे , कोई कहता हम मौत का कुंआ,जादू और सरकश देखेगें, कोई कहता हम बड़े वाले झूला पर झूलेगें। बुजुर्ग आपस मे बातें करते इस बार पट्टी के मेले मे अपने लिए कम्बल और जैकेट खरीदेंगे ठंडी आ रही है, जानवरों के लिए गले मे बांधने के घंटी खरीदेंगे, महिलाएँ आपस मे बातें करती इस बार पट्टी के मेले मे घर के लिए बर्तन, अपने लिए साड़ी और चूड़ी, बच्चो के लिए कपड़े खरीदेंगे। बच्चे से लेकर बुजुर्ग पट्टी के मेले के लिए सभी के अपने -अपने सपने होते थे। जनाब शहरों मे जो पाँच सौ रूपये किलो जलेबी मिलती होगी वह भी उतनी स्वादिष्ट नहीं होगी,जितनी स्वादिष्ट हमारे पट्टी के मेले मे पचास रूपये किलो गुड़ की जलेबी मिलती थी, जिसे हम चोटहईया जलेबी कहते हैं। आज भी शहरों मे आँखें चोटहईया जलेबी को ढूँढती रहती है लेकिन कही नहीं दिखती है। पट्टी के मेले का गट्टा भी बहुत स्वादिष्ट होता था, जिसे खरीदकर परदेशी शहर लेकर जाया करते थे। मेले से लौटते समय सभी के हाथे चोटहईआ जलेबी एवं गट्टे से भरे रहते थे। पट्टी का मेला देखने के लिए सड़के हमेंशा भरी रहती थी, सभी मेला देखने के लिए जल्दी सुबह उठकर, काम-धन्धा करके, बढ़िया से नाह-धोकर, सजकर टोली बनाकर मेला देखने जाते,कोई साईकिल पर पत्नी को पीछे बैठाकर, बच्चे को आगे बैठाकर मेला दिखाने जाता था,कोई पैदल जाता था, कोई गाड़ी से जाता था लेकिन पट्टी का मेला देखने सभी जरूर जाते थे। सूरज ढलने पर ही सभी मेला देखकर वापस आते, बच्चे कूदते-फाँदते, गुब्बारा उड़ाते हुए , खिलौने लिए हुए, सीटी बजाते हुए पी-पाॅ करते हुए घर को वापस आते और रात-भर मेले की ही बातें करते, क्या घूमा, क्या खाया ,क्या खरीदा,क्या देखा? आज भी पट्टी के मेले के वे नजारे, वे यादें , वो बचपन, वो जिद्द मेला देखने के लिए, वो उत्सुकता, वो आनंद आज भी बहुत याद आता है।
मेरे प्यारे मित्रों! इस मेले से मेरे जीवन के बचपन के दिनो के बहुत ही सुनहरे यादें जुड़ी हैं , जिसे मैं जीवन के अन्ततः तक नही भूल सकता । आज भी बचपन के मेले के दिन के स्मृतियों को याद करता हूँ तो वह अतीत याद आ जाता हैं और आँखें सजल हो जाती हैं, हृदय कि गति रुक जाती हैं मानो वातावरण शान्त हो जाता हैं। बात उन दिनो कि हैं जब मेले के लिए हर बच्चे के जहन मे एक उत्साह होती थी। पट्टी का मेला हर वर्ष की तरह इस बार भी आया, सभी मेला देखने कि तैयारी कर रहे थे, सभी के उत्साह एवं मेले के प्रति बुने हुए अपने सपने को देखकर हम भी मेला देखने के लिए उत्साहित थे लेकिन हमें क्या पता घर मे क्या बीत रही है। घर की आर्थिक स्थित ठीक न थी, पिताजी बीमार थे, उनके इलाज मे जोे पैसे थे वो खर्च हो गये थे, पिताजी भी ठीक हो गये थे, शहर जाने वाले ही थे लेकिन पट्टी का मेला भी उसी समय आ गया घर मे रूपये न थे। माताजी हम लोगों के बाल उत्साह को देखकर न जाने कहाँ से दो सौ रूपये कि व्यवस्था करके पिताजी को दिया, हम लोगों को मेला दिखाने के लिए। हमारे मन मे कितने सपने कितने उत्साह थे मेले के लिए,सभी सपने लेकर पिताजी के हाथ को पकड़कर पैदल हम दोनो भाई निकल पड़े। सड़के भरी थी बहुत से लोग पैदल जा रहे थे मेला देखने के लिए। भीड़ मे मेले के समीप जैसे ही पहुँचे, कानों मे लाउडस्पीकर कि अवाज गूँजने लगी, फलाने नाम का लड़का, फलाने गाँव से अपने माता-पिता का ये नाम बता रहा है वह उनसे बिछण गया है, वह बहुत रो रहा हैं कृपया करके उसे सम्पर्क करके ले जाये। यह सुनकर हम दोनो भाई डरें सहमें पिताजी के हाथ को और कसकर पकड़ लिये किस तरह मेले मे प्रवेश किये। मेले कि चमक-धमक आभा देखकर मन बहुत ही प्रफुल्लित हो उठा। सुंदर-सुंदर खिलौने, बडे़-बड़े झूले, अच्छे से अच्छे मिष्ठान, मशहूर जादूगर, सरकश और मौत का कुॅआ सब दिख रहे थे। पिताजी के साथ मौत का कुॅआ के टिकट खिड़की के पास पहुँचे एक टिकट लगभग बीस रूपये का था यह सुनकर कदम पीछे हट गये। पिताजी दूर से ही मौत के कुॅआ के अन्दर के कार्यक्रम का ऐसा सचित्र वर्णन किया जैसा मानो हमने देख लिया। अब ऐसा लगा रहा था कि हमने जादू देख लिया, सरकश देख लिया, सभी झूले झूल लिये और सभी का आनन्द उठा लिये हैं। अचानक उसे बालरूप मे ऐसा त्याग न जाने कहाँ से आया हम दोनो भाईयों के अन्दर इन चीजों के प्रति। उसे बालरूप मे घर कि मालीहालत का याद आया और वो दो सौ रूपये का जो माँ ने पिताजी को दिया था। दोनो भाई पिताजी के साथ दूर से ही सभी चीजों का आनन्द अपने मन मे कल्पना के सागर मे डूबकर उठा लिये। मेले मे बहुत देर तक घूमे कुछ नही खरीदे ,फालतू एक रूपया भी नहीं खर्च किये, मेले मे घूमते -घूमते शाम हो गयी पिताजी एक दूकान पर ले गये चाट और गोलगप्पे खिलाये। घर के लिए आधाकिलो जलेबी लिए,एक किलो गट्टे और दोनो भाईयों मे से किसी का चप्पल टूटा था इसलिए चप्पल खरीदें। उधर सूरज अस्ताचल के तरफ गतिमान था धीरे-धीरे शाम होने लगा थी, सभी पंछिया भी उड़ते-उड़ते अपने बसेरे कि तरफ जा रही थी, सर्द मन्द-मन्द हवाओं के बीच पिताजी के हाथ को पकड़कर हम भी मेले से घर कि तरफ प्रस्थान किये। रास्ते मे ही हम दोनो भाई संकल्प लिये कि अपने हमउम्र के बच्चो से बतायेंगे कि हम लोग सब देखे, सब झूले सबका वर्णन कर देंगे। मन मे शान्ति और सन्तोष लिए शाम को घर पहुचे लालटेन कि रोशनी चारोंतरफ फैल चुकी थी। पिता जी ने हमारे त्याग को जब माँ से बताया तो माँ के अश्रुधार रुक नहीं पाये और सिसकते हुए गले से लगा लिया ऐसा लगा जैसे माँ हमें बहुत दिनो के बाद पायी हैं लालटेन के मन्द प्रकाश से भरे उसे कमरे मे मानो सन्नाटा छा गया, ऐसा लगा रहा था मानो उसे सर्द चाँदनी रात मे चाँद किसी वृक्ष कि आड़ मे छुपा यह सब देख रहा हैं। माँ रोकर बोली तुम लोग अपने खुशियों का गला घोट दिये। हमने माँ को समझाया क्यों हम अपना पैसा फालतू झूले, खिलौने, जादू और सरकश मे फेके? पिताजी कि भी आँखें सजल हो गयी यह सब देखकर। वह जीवन कि सबसे सुखद रात थी। पंछियों के चहचहाट के साथ फिर एक नये प्रभात का उदय हुआ। सभी बच्चे अपने-अपने खिलौने खेलने लगे और मेले कि बातें करने लगे। हम लोग भी उन बच्चो के साथ खेलते-खेलते खूब भौकाल मारे, हमने मौत का कुॅआ देखा, जादू देखा, सरकश देखा और झूला झूले ,सभी से चार बात आगे ही रहते थे ,हम लोगों को कोई भाप नहीं पाया। मेरे प्यारे दोस्तो आज भी मैं पट्टी के मेले मे जाता हूँ तो मौत का कॅुआ,जादूगर,सरकश और झूले को दूर से ही देखता हूँ और बचपन कि स्मृतियों मे खो जाता हूँ।
पट्टी के मेले से एक यादें और जुड़ी हुई हैं तब हम मेला देखने खुद जा सकते थे इतने बड़े हो गये थे कि मैं उस समय सातवीं मे पढता था। पट्टी का मेला फिर आया, हमने मुंशी प्रेमचन्द के ईदगाह को खूब अच्छी तरह से पढ़ा था और पढ़कर अपनी माँ को भी सुनाये थे उनकी आँखें भर आयी थी। हामिद मेले मे से अपनी बूढ़ी दादी अमीना के लिए चिमटा लाया था ताकि उसके दादी के हाथ न जले रोटी पकाते समय। हामिद का बालरूप त्याग खूब अच्छी तरह से याद था। हमने भी सोचा इस बार मेले से अपनी माँ के लिए कुछ लायेंगे। मुझे और छोटे भाई को मेला देखने के लिए पचास-पचास रूपये मिले थे और बड़ी बहन को सौ रूपये मिले थे। मुझे याद आया कि घर मे बैठने के लिए माँ के पास आसन नहीं हैं “पीढ़ा”, माँ को बैठने मे दिक्कत होता हैं। मैं पचास रुपये लेकर खुशी-खुशी अकेले मेला देखने निकल पड़ा और मेले मे सीधा फरनीचर कि दुकान ढूँढता हुआ फरनीचर कि दुकान पर पहुँचा और पीढ़े का मोल भाव करने लगा आखिर एक पीढ़ा बीस रूपये मे तय हो गया और मैने तुरन्त खरीद लिया। अब मेरे आनन्द का ठिकाना न रहा मानो मैने दुनिया कि सबसे कीमती वस्तु अपने माँ के लिए खरीद ली हो। मै खुशी के मारे न मेले मे कुछ न खाया, न देखा, मैं पीढ़ा लिये हुए सीधा खुशी से झूमता हुआ घर कि तरफ चला चल पड़ा और घर पहुचते ही माँ के हाथों मे पीढ़ा और बचे हुए तीस रूपये दे दिया। माँ आश्चर्य से पूछी ये कहाँ से लाये और मेला नहीं देखे ? मैने कहाँ मेले से बीस रूपये मे लिया आप को बैठने के लिए। माँ कि आँखें ममता के जल से भरी हुयी थी उसने मुझे गले लगा लिया। यह मेरे लिए जीवन का स्वर्णिम पल था। आज भी वह पीढ़ा घर के एक कोने मे पड़ा मुझे देखता हैं और माँ को मेरे बचपन कि स्मृतियों को याद दिलाता हैं और कभी-कभी माँ कह बैठती है कि यह पीढ़ा मुझे भईया ने मेले से बैठने के लिए लाया था यह सुनकर बचपन कि पुरानी स्मृति जागृत हो जाती हैं।
कुछ देर बाद शाम हो गया बड़ी बहन भी बगल की औरतों और घर कि बड़ी बहनो के साथ मेला देखकर घर पहुँची, देखता हूँ वह माँ के लिए आटा चालने के लिए चलनी लेकर आयी हैं और हम लोगों को खाने के लिए समोसे,जलेबी और गट्टे लेकर आयी हैं और अपने लिए कुछ भी नही खरीदा हैं। उस त्याग कि देवी अपनी बड़ी बहन को मैं नमन करता हूँ कि जिस उम्र मे लड़किया मेले मे उत्साह से जाती थी और अपनी श्रृंगार कि समाने खरीदती थी उसी जगह उसने अपने लिए कुछ भी नहीं खरीदा । माँ ने पूछा बड़ी बहन से तुमने अपने लिए क्यों कुछ नहीं खरीदा? बड़ी बहन ने बहुत त्याग और शान्ति से बोली मेरे पास सब कुछ है क्या खरीदू। कुछ देर बाद छोटा भाई भी आया उसने अपने पढ़ने के लिए एक मधुकर कि किताब खरीदी थी जिसमें अंग्रेजी के कुछ शब्द और गणित के सूत्र होते थे और दो -तीन कलम खरीदें थे और बाकी रूपये बचा लाये थे। तीनो एक से बड़े एक त्यागी निकले। मेले कि दिन की वो रात मानो ऐसा लगा कि मुंशी प्रेमचन्द कि ईदगाह पढ़ना सफल हो गया । माँ अपने तीनो बच्चो को गले लगाकर खूब प्रेम किया सभी के आँखों मे आँसू आ गये , फिर सभी ने बड़ी बहन के लाये हुए समोसे, जलेबी को मिल बाटकर लालटेन कि मन्द रोशनी मे मिट्टी के घर मे आनन्द उठायें उसके बाद माँ से कहानी सुनकर सर्द रात मे माँ से लिपटकर सुखमय निद्रा मे विलीन हो गये । कुछ ऐसे ही रही बचपन कि पट्टी कि मेले कि सुखद यादें।
– शुभम इन्द्र प्रकाश पाण्डेय
ग्राम व पोस्ट -कुकुआर, पट्टी , प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश