पटना पटना है ( आपबीती) क्रम: २.
पटना पटना है ( आपवीती) क्रम:२.
: दिलीप कुमार पाठक
बाबा के अन्त्यकर्म में लगने के साथ-साथ पटना भ्रमण की योजना थी। तारामण्डल, गोलघर , म्यूज़ियम, चिड़ियाखाना, विज्ञान भवन, गाँधी मैदान एवं गँगा मैया का दर्शन। मगर अन्त्यकर्म संपन्न करने का भारी भरकम दायित्व मेरे ऊपर भी आ गया था। कर्मकाण्ड का दायित्व। बेबी अलग रम गयीं, दीपा-दिव्या की अलग टोली बन गयी।
एक किताब है गीता प्रेस की ‘अन्त्यकर्म श्राद्ध प्रकाश ’ बड़ी अच्छी किताब है। वहां के कार्य की सम्पन्नता के लिए उसकी आवश्यकता महसूस हुई। प्रस्ताव रखा, “वह किताब मंगवाई जाय।”
“तो तुम्हीं जाकर ले आओ।”
पटना में जब रहता था, तो हनुमान मन्दिर में गीता प्रेस की किताब मिलती थी। दशकर्म के बाद दिन के तीन-साढ़े तीन के करीब एक ट्रेन लगी मिली, पटना तरफ़ जाने वाली। दशकर्म का कार्यक्रम महाब्राह्मण के सानिध्य में परसा बाजार के दो नं. प्लेटफॉर्म पर ही सम्पन हुआ था। क्योंकि उसी प्लेटफॉर्म पर पीपल का पेड़ था। गाड़ी १ नं. पर खड़ी थी। टिकट काउण्टर एक नं. पर दूर में थी। गाड़ी खुलने को थी, अतः ऐसे ही जा बैठा। ट्रेन खुली मुश्किल से दस मिनट में पटना जंक्सन पहुँच गयी। टेम्पू से तो प्राण ही निकलने को हो जाता है।
प्लेटफ़ॉर्म ७ पर गाड़ी रुकी। प्लेटफॉर्म पर उतरा बेडाउटी होने के कारण सामने से जाना उचित न समझा। कहीं कोई लफड़ा हो जाय तो लेना का देना पड़ जायेगा। प्लेटफॉर्म से पटरियों को लाँघते हुए आरा लाइन तरफ से हनुमान मन्दिर जाने की तरफ जाने वाले रास्ते में बढ़ा, पटरियाँ लाँघते हुए। ऊपर से विशालकाय पुल की छत थी। जो करविगहिया से हॉर्डिंग पार्क को जोड़ती थी, परसा तरफ जाने वाली सड़क से जुड़ने वाली थी। पटरी लांघने का क्रम जैसे ही समाप्त हुआ एक दिवाल आ गया। लालू जी के जमाने में यह दीवाल नहीं हुआ करता था। कभी न खुलने वाला क्रॉसिंग बैरियर हुआ करता था। जहाँ हम लोग फल-सब्जी लिया करते थे। तब ट्रेनें गुजरती थीं बड़ा सोच समझकर। रेल-प्रशासन पहले फल सब्जी वालों को हँकाते थे। तब कहीं जाकर ट्रेनों की आवाजाही होती थी। अब उस बैरियर का अता-पता तक नहीं था। सामने दीवाल है, दीवाल को लोग फाँद रहे हैं। दीवाल के नीचे दोनों तरफ़ लहसून का छिलका गिराया हुआ था। प्रतीत होता था जानबूझकर सलीके से बिछाया गया हो। जो गद्दीदार लग रहा था, जिससे दीवाल की ऊँचाई कम हो गयी थी। एक महिला अपने तीन बच्चों के साथ दीवाल फाँदने के प्रयास में थी। बच्चे को गोद में ले, “ए सुनीत ह, तनी लइकवा के पकड़। ” एक आदमी फटाक से उसके बच्चे को पकड़कर दीवाल के इस पार ले आया। उसके तीनों बच्चे इधर आ गये थे। अब उसकी तैयारी थी इधर आने की। इतने में दीवाल पर मैं चढ़ गया।
“अरे अरे ! रुक अ, तनी हमरा टपे द पहिले। उ पार हमर लइकन ढेमराइत हे। ”
मगर मैं दीवाल पर चढ़ गया था। वग़ैर किसी प्रतिक्रिया के दीवाल पर कुछ दूर चलकर उतर गया था। सामने से गहराई ज्यादा थी। जो शायद जानबूझकर बनायी गयी हो ताकि लोग समझदारी से दीवाल टपें। उधर भी इधर की तरह ही लहसून के छिलके का ढेरी इक्कट्ठा किया हुआ था। उसी पर उतरा था। उतरने वाली जगह पर पुल की छत से पानी टपक रहा था। बचते-बचाते चल रहा था, मगर बच नहीं पाया था।
आगे बढ़ा, इधर फल-सब्ज़ी वालों की दुकानें थीं। जो रास्ता था, पानी पड़ने से कीचड़युक्त हो गया था। कहीं-कहीं ईंट या पत्थर रखा मिल रहा था। जिसके सहारे हनुमान मन्दिर तरफ़ बढ़ रहे थे। बारिश तेज़ होती जा रही थी। हमने निर्णय ले रखा था, हनुमान मन्दिर पहुँचकर ही दम लेंगे। आगे जो गली हनुमान मन्दिर तरफ जाती थी, पानी से लबालब भरी थी। उस गली से जाने का हिम्मत नहीं हुआ। दायें मुड़ा, टिकट काउन्टर तरफ आ गया। वहाँ से होते हुए हनुमान मन्दिर तरफ बढ़ा। बारिश तेज हो चुकी थी। साथ में खादी गमछा था, उससे माथे का बेल ढका हुआ था। दौड़ा, दौड़कर हनुमान दरबार के दरवाज़े पर दस्तक दिया। तब अहसास हुआ था, “ टिकट कटाकर आता तो इतनी परेशानी नहीं उठानी पड़ती।” मगर मझधार में अटकी पटना का दर्शन शायद टिकट कटाकर नहीं होता।
जूत्ता-चप्पल काउन्टर – मैं अपना चप्पल निकालकर देने लगा। “देखिए बोर्ड और उस तरफ जाइये। ”
इस तरफ वाला बोर्ड में लिखा था, “महिलाओं एवं परिवार वालों के लिए। ” दूसरी तरफ, “पुरुषों के लिए। ”
दरवाजे पर पुलिसिया दरवाजा लगा हुआ था। उससे गुजरकर जहाँ किताबें मिलती थीं वहाँ पहुँचा।
“अब किताबें यहाँ नहीं मिलतीं, उस तरफ के बाजार में एक दूकान है, वहीं मिलेगी। ”
उस तरफ का मतलब मन्दिर के दक्षिण तरफ। मस्जिद साइड में। उधर जाने के लिए दक्षिणी दरवाजा पार किया। परन्तु सफल न हुआ। लोहे के पाईप का बैरिकेट लगा हुआ था। पतले-पतले लोग आना-जाना कर रहे थे।
“भाई इधर किताब की दुकान ………”
“हाँ उस मार्केट में है। आप मोटे हैं नहीं पार कर पाइएगा। उधर से घुम के आइये। ” एक फुल बेचने वाले ने सलाह दी थी।
पटना में था तो मैं बहुत पतला था, वह भी शादी के पहले। शादी के बाद शरीर बनने लगा था।
खैर, जिधर से आया था उधर से ही मन्दिर से वापस आ गया था। अपना चप्पल पहना और चल दिया लक्ष्य तक। बारिश भी कुछ थम गयी थी। हल्का झींसी टाइप का बना हुआ था। सामने गोलम्बर दिखा, फिर सामने नव-निर्मित पार्क। मैं मन्दिर के विपरीत प्रदक्षिण क्रम से उस गली के मुहाने तक पहुँचा, जहाँ किताब दुकान थी। जिस गली में मिठाई और फुल वाले थे। रास्ते पर फेंके गए फूल बजबजा रहे थे। जिनपर चढ़कर हलके पाँव चलना शुरू किया। उस मार्केट के अन्दर पहुँचा। छोटी सी दुकान थी। मगर किताबों से भरी हुई थी।
“अन्त्यकर्म श्राद्ध प्रकाश है।”
“हाँ होगी लेनी है। ”
“हाँ भाई। ”
उसकी खोज शुरू हुई, सामने में नहीं मिली थी। दुकानवाले प्लाई का छत बना रखे थे। सीढ़ी लगाकर ऊपर चढ़े। ऊपर से उतारकर उन्होंने लाया। दाम १२० रुपया।
“चलिए ठीक है। ”
यह १२० रूपया छोटे चाचा जी जो जहानाबाद में शिक्षक थे उनके द्वारा दिया गया था। मेरे पास पैसों की भयंकर तंगी थी। वहाँ गया भी था तो उधार-पइँचा लेकर। रक्षाबंधन से नाचने ही नहीं आ रहा। वहाँ आवश्यकता थी गीता-रामायण की भी। सोंचा कुछ मैं भी लगा दूँ।
“छोटी वाली गीता भी है। ”
“कितनी प्रति चाहिए।”
“लगभग एक दर्जन। ”
“बीस रूपये वाली है।”
“बारह वाली नहीं। ”
“नहीं ख़तम हो गया। यही ले जाइये हार्डबॉन्ड में है।”
उसके लिए बजट अनुकूल नहीं था।
“रहने दीजिये। ”
वहाँ से चला स्टेसन पर पहुँचा। एकाएक याद आया, टिकट काउन्टर वाली हॉल में एक गीताप्रेस की दुकान थी। हॉल में प्रवेश लिया। सचमूच वह दुकान थी। धत तेरे की। वहाँ सारी किताबें उपलब्ध थीं। उस हॉल की स्वच्छता देखते बनती थी। हॉल में अष्टगन्ध और गुग्गुल का गन्ध सर्वत्र व्याप्त था। एक रामचरितमानस का गुटखा ४५ रुपये का और १३ रूपये के हिसाब से हार्डबाउण्ड गीता लिया। उसके बाद पाँच रूपये का रेलवे टिकट परसा-बाज़ार आने के लिए।
टिपण्णियाँ:
आशुतोष कुमार पाठक: कब की घटना है बाबा?
कमलेश पुण्यार्क गुरुजी: ये दिलीपबाबा की आपवीती वाकई मजेदार होती है आशुतोषजी।रही बात कब की- तो इससे क्या मतलब,कुछ बाते कालजयी होती हैं- कालजयी लोगों की तरह ही.।
मैं: १७ सितम्बर २०१४ की।
आशुतोष कुमार पाठक: सुचना तो दे दिया होता कुछ कष्ट कम कर दिया जाता।
मैं: कष्ट कम होगी तो कहानी कैसे बनेगी ?