पग – पग पर कांटें
पग – पग पर कांटें
पग – पग पर कांटें
क्यूँ बिखरे
न तुम जानो
न मैं जानूं
पग – पग पर रोड़े
क्यूँ बिखरे
न तुम जानो
न मैं जानूं
ये माया नगरी
कैसी है
न तुम जानो
न मैं जानूं
गिरता मानव
हर – पल , हर – क्षण
न तुम जानो
न मैं जानूं
धरा खोती
दिशा – दिशा
तारों की चाल
बदलती सी
ऐसा लगता क्यूँ
न तुम जानो
न मैं जानूं
मानव है
चालों में उलझा
मानव है
जालों में उलझा
ऐसा है क्यूँ
न तुम जानो
न मैं जानूं
एक पागलपन
एक जूनून सा है
हर ज़र्रा – ज़र्रा
गुमसुम सा है
ऐसा होता है क्यूँ
न तुम जानो
न मैं जानूं
गिर जाये
जब कोई तो
संभालने वाला
मिलता नहीं है यहाँ
ऐसे लोग यहाँ पर क्यूँ हैं
न तुम जानो
न मैं जानूं
पाना खोना
है रीत यहाँ
कोई किसी का
है न मीत यहाँ
केवल रोना
और केवल रोना
हर एक की है
तकदीर यहाँ
ये सब होता ही क्यूँ है
न तुम जानो
न मैं जानूं