न हो रुपैया तो रिश्ते कहाँ हैं।
रुपैये ने रिश्तों को बांधा है कस के
गर हो न रुपैया तो रिश्ते कहाँ हैं ।
कंगालों के दामन को छोड़े कभी न,
मिलते जहाँ में ऐसे फ़रिश्ते कहाँ हैं।
इज्जत व शोहरत गरीबों से नफरत
क्या हम बताए कैसी है अब उल्फत।
सबको रहे बांधे एक धागे में अक्सर,
किताबों जैसे बंधे वो ज़िस्ते कहाँ हैं।
गर हो न रुपैया तो रिश्ते कहाँ हैं।
बगल से निकलना कुछ भी न कहना।
गरीबों को देखकर यूँही मौन रहना।
अमीरों की खिदमत में खड़े हैं हजार,
यहाँ कोई गरीबो के वास्ते कहाँ है।
गर हो न रुपैया तो रिश्ते कहाँ है।
झूठी हँसी बन चुकी अब कला है।
ग़रीबी बनी तो बस चुटकुला है।
जमाना हुआ है खुशी से मिले अब,
ये गरीब हैं जनाब ये हँसते कहाँ है।
गर हो न रुपैया तो रिश्ते कहाँ है।
-सिद्धार्थ गोरखपुरी