न तन तेरा न मन मेरा
न तन तेरा न मन मेरा
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न तन तेरा ,न तन मेरा ,
न मन तेरा,न मन मेरा ।
न दिल तेरा ,न दिल मेरा ,
फिर होता क्यों तेरा-मेरा ??
ना तो मेरा ,ना ही तेरा ,
इस जहां में वजूद है ।।
वजूद है तो, है उसका ,
जो लगे हमें बे-वजूद है |
वो अक्षर है ,वो शब्द है ,
वो ऋत है ,वो अब्द है ।
वो नियामक है ,वो नियंता है ,
वो स्वामी है ,वो जनता है ।।
वो पूजा है , वो अजान है ,
वो कण-कण में पहचान है ।
वो निर्गुण है , सानन्द है ,
वो परम सच्चिदानंद है ।।
वो सत्य है , वो सत्ता है ,
वो वृक्ष है ,वो पत्ता है ।
वही अज है , वही अजा है ,
वही सृष्टि , वही क़जा है ||
तभी तो कहता दीप यहां ,
न तन तेरा ,न तन मेरा ।
न मन तेरा ,न मन मेरा ,
चारों और उसी का डेरा ।।
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डॉ०प्रदीप कुमार ‘दीप’