न जाने ज़माने को क्या हो गया है
न जाने ज़माने को क्या हो गया है
यहाँ हर कोई दौड़ने में लगा है
मची होड़ है यूँ निकलने की आगे
कहीं कुछ न कुछ छूटता जा रहा है
कहीं छोड़ इंसानियत दी किसी ने
किसी ने शराफत को गिरवी रखा है
कि ईमान कोई लगा बेचने में
ये इंसान क्या था ये क्या अब हुआ है
किसी ने गिरा दी अदब की दिवारें
कहीं शर्म का फिर जनाज़ा उठा है
हैं बसने लगे मुर्दे मेरे शहर में
मैं ज़िन्दा हूँ ये बस वहम ही मिरा है
ज़रा मुड़ के भी देख पीछे दिवाने
था जाना कहाँ तू कहाँ खो गया है
बनाया था “मासूम” तुझको खुदा ने
तू पुतला क्यों शैतान सा हो गया है
मोनिका “मासूम”