नज़्म/ख़ुदी में खोया रहता है
ख़ुदी में खोया रहता है
वो अपनी अपनी कहता है
यूँ तो इक़ चट्टान सा है वो
मग़र पहाड़ो से कभी मिला नहीं
भूल गया उससे भी कई बड़े हैं
आँधी तूफ़ानों से टकराते
कई रोज़ बिना डगमगाए
वो कई पहाड़ खड़े हैं
यूँ तो वो पहाड़ हैं
मग़र शांत रहते हैं
उन्हें समझ है बख़ूबी
क्यूंकि तूफ़ानों को सहते हैं
मग़र वो देखिए उसे कितना गुमाँ है
आदमी की शक़्ल में हैवान खड़ा है
आईने में छुपा रहता है
बारहाँ उसी में छुपा रहता है
बाहर निकलें तो जहाँ देखें
इक़ नदी के जैसे बहता है
समन्दरों से कभी मिला नहीं
बस अपनी अपनी कहता है
ख़ुदी में खोया रहता है
ख़ुदी में खोया रहता है……
समन्दरों से कभी मिला नहीं
गहराई की समझ क्या जाने
समन्दरों से मिले कभी तो जाने
कभी जाति देखता है अपनी
कभी छाती देखता है अपनी
इंसानों से कभी मिला नहीं
बुत सा खड़ा है हिला नहीं
इंसानियत फ़िर क्या जाने
इंसानियत फ़िर क्या माने
आधा जिया पर ख़ाक जिया
ज़मीं नापते नापते शिकन आ गई
खज़ाना इकट्ठा करते करते
उसकी शक़्ल मुरझा गई
अमलों का हिसाब रखता नहीं
क़ायदों की किताब रखता नहीं
फ़कत पैसा पैसा कहता है
फ़कत दौलत दौलत कहता है
वो ख़ुदी में खोया रहता है
बस अपनी अपनी कहता है
ख़ुदी में खोया रहता है……
जाने कब से जगा नहीं
मग़रूर वो सोया रहता है
बस अपनी अपनी कहता है
नासमझ है मुसाफ़िर वो
इंसां नहीं है काफ़िर वो
कुछ भूल गया है आख़िर वो
नहीं जानता उसूल ख़ुदा के
दो गज ज़मीं मिलेगी उसे भी
औऱ कफ़न भी सबके जैसा
दमन भी सबके ही जैसा
फ़िर भी बे रसूल सा रहता है
बस अपनी अपनी कहता है
वो ख़ुदी में खोया रहता है…..
वो ख़ुदी में खोया रहता है….
___अजय”अग्यार