नज़्म:-सारी रात गुजर गई और…
यूँ ही करवटें बदलते-बदलते ,
सारी रात गुजर गयी और,
नींद का कुछ अत पता न था …!
जैसे वो भी रूठ गई हो तुम्हारी तरह
चली गई हो, मेरी आँखों से सदा के लिए
मुझे अकेला छोर कर
रातों की तन्हाई से डसने क लिए बी
यादों के भंवर मई डूबने के लिए !
यादों की बारिश में,
यूँ ही भीगते-भींगते
सारी रात गुजर गई और
नींद का कुछ आता-पता न था !
चांदनी रातें थी मगर,
चाँद की चांदनी में भी,
आज वो रौनक न थी
जैसे मनो वो भी
मेरी उदासी से उदास हो कर, कह रही हो
यूँ ही गुजरती है, एक आशिक़ की जिंदगी
न दौलत की आरजू न फ़क़ीरी से आजीजी
और न ही इंतज़ार की झल्लाहट ,
जाने कैसी होती है , आशिक़ की जिंदगी !
चाँद की चांदनी को…
यूँ ही देखते देखते,
सारी रात गुजर गई और
नींद का कुछ आता पता न था !
दिल और दिमाग़ पर,
सिर्फ और सिर्फ, एक ही सोच सवार थी
कहाँ मिलोगी तुम,
कहाँ तलाश करूँ तुझे
अपनी पाक मुहब्बत का,
कैसे दिलायुं यकीन !
यही सोचते सोचते,
सारी रात गुजर गई और
नींद का कुछ अता पता न था !
सवेरा हो चुका था
हर रोज की तरह
एक बार फिर , मै निकल चुका था
दुन्या के इस बियेबाँ जंगल में
तुम्हे तलाशने
अनजानी राहों पे, एक अनजानी मंजिल को
एक अनजानी राहों पे, एक अनजानी मंजिल को
एक अनजानी मंजिल को ………!!
©ए आर साहिल