नज़्म/आदमी को शिक़ायत बड़ी रहती है।
आदमी को शिकायत बड़ी रहती है
कभी आदमी से कभी वक़्त से
कभी ख़ुद से कभी खुदा से
आदमी को शिकायत बड़ी रहती है
दरख़्तों को आँधियों से नहीं रहती
ना तूफ़ानों से रहती है शिकायत कभी
जो झकझोर देते हैं दरख़्तों को बेवज़ह
कभी तोड़ डालते हैं डालें भी बेवज़ह
फ़िर भी दरख़्तों को शिक़ायत नहीं रहती
मग़र आदमी को शिक़ायत बड़ी रहती है……..
ज़मीं को सूरज से नहीं रहती शिक़ायत कभी
ना इंसानों से रहती है शिक़ायत
दोनों ही ज़ुल्म करते हैं इसपे बारहाँ
सूरज सूखा देता है इसे अपनी आग से
कभी अपनी लपटों से जलाता रहता है
इंसां सीना चीरता रहता है ज़मीं का हर रोज़
फ़िर भी ज़मीं को शिक़ायत नहीं रहती कभी
मग़र आदमी को शिक़ायत बड़ी रहती है……..
पंछियों को बारिशों से नहीं रहती शिक़ायत कभी
ना पागल हवाओं से रहती है
बारिशें भिगों देती हैं उनके आशिएं
सराबोर कर देती हैं कुछ इस तरहा
औऱ पागल हवाएँ भी कुछ कम नहीं
वो हिला देती हैं उनके घोंसलें कभी गिरा भी देती हैं
फ़िर भी पंछियों को इनसे कोई शिक़ायत नहीं रहती
मग़र आदमी को शिक़ायत बड़ी रहती है …..
नदियों को इंसानों से नहीं रहती शिक़ायत कभी
ना जंगलों को रहती है कोई शिक़ायत
इंसां ज़हर घोलतें रहतें हैं नदियों में इतना
उनके चेहरों को बदसूरती में ढालते रहते हैं
जंगलों की गर्दनें कतरने में परहेज़ नहीं करते
देखों नदियाँ तड़पती होंगी
औऱ ये बेजुबां जंगल भी तो
बेचारें कभी उफ्फ़ तक नहीं करते
ना नदियों को रहती है शिक़ायत इंसानों से
ना जंगलों को इंसानों से शिक़ायत रहती है
मग़र आदमी को शिक़ायत बड़ी रहती है…….
~~अजय “अग्यार