नौ दो ग्यारह…
रोज ही कई मुद्दों पर,
कई बातों पर, कई मंचों पर,
सोचता हूँ, बुनता हूँ,
लिखता हूँ और कहता हूँ…
लेकिन जब भी खुद पर,
कुछ लिखने की,
सोचता हूँ तो मैं,
खुद से ही भाग जाता हूँ…
कई सपनों, कई अरमानों,
कई हसरतों को बहुत,
अल्फ़ाज़ दिये हैं मैने,
लेकिन खुद की ही,
‘कवायत’ मे हार जाता हूँ…
ऐसा नहीं है कि मै,
कलम के ‘काबिल’ ना हुआ,
पर अपनी कहानी के,
‘आगाज’ मे ही सिमट जाता हूँ…
लोग कहते हैं कुछ बताओ,
कुछ तो कहो भी अपनी,
जब खुद मे कुछ नहीं पाता तो,
फिर ‘नौ दो ग्यारह’ हो जाता हूँ….
©विवेक’वारिद’ *