नीलकंठ
पी लिया जब कालकूट
महेश भोलेनाथ ने,
दुष्ट गरल कुछ इस तरह से
शेखियाँ बघारने लगा।
मेरे स्पर्श मात्र से
ये धरा भी जलने लगे,
भयहारी को भय दिखा
वो पामर ललकारने लगा॥
पान जो मुझ हलाहल का किया
देखना धरा को सूँघने लगोगे,
बस रुको जरा कुछ क्षण तो
यमपाश को चूमने लगोगे।
सुनकर कटु से बैन माहुर* के माहुर— विष
हँस दिए नाथों के नाथ,
मूढ़! धन्य क्यूँ न समझता स्व को?
पा आशुतोष का साथ।
हुआ था कुछ ही समय गरल को
वो तड़पने यूँ लगा,
आने बाहर शिव-मुख से
झष** सम मचलने यूँ लगा। झष—- मछली
पर विष स्थिर किया
अंत:ग्रीवा में महाकाल ने,
हो गया था दर्प चूर
फँसा कालकूट जो शिव-जाल में।
धार कंठ में विष को
प्रभु नीलकंठ कहाने लगे,
हे स्वयंभू! कह मृत्युंजय आपको
सर्व देव प्रसून*** बरसाने लगे। प्रसून—- फूल
सोनू हंस