*नीम का पेड़*
राजाराम जी का शहर में व्यापार था. उनके दो पुत्र थे सुनील और सुधीर. वे दोनों भी शहर में ही पढ़ कर बड़े हुए थे. इसलिए राजाराम जी का गाँव में आना कम ही होता था. गाँव में उनका पुश्तैनी मकान था जिसका बंटवारा हो चुका था बड़े होने के कारण पिछवाड़े का हिस्सा उन्हें मिला और आगे का भाग उनके छोटे भाई को. कई सालों बाद एक दिन छोटे भाई का पत्र आया जिसमें उन्हें गांव आने का लिखा हुआ था. मगर वजह नहीं लिखी हुई थी. पत्र आने के अगले दिन ही टेलीग्राम आया. उसमे भी सिर्फ इतना ही लिखा हुआ था come soon. सभी को चिंता हुई, राजाराम जी हाथों हाथ पत्नी सहित पूरे परिवार को लेकर गांव के लिए रवाना हो गये. रास्ते में कई तरह के अच्छे-बुरे विचारों ने परेशान किया. अगले दिन जब वे घर पहुंचे तब सबको सकुशल देख कर मन में शांति हुई. सब लोग मिले, हाल चाल पूछे, दोपहर को सब ने मिल कर खाना खाया और घर के आँगन में लगे नीम के पेड़ के नीचे बैठ कर हथाई करने लगे. उन्हें अचानक सपरिवार आया देख कर मोहल्ले के लोग भी इकठ्ठा हो गये. तब राजाराम जी ने अपने छोटे भाई से पूछा कि ऐसी क्या बात हो गई थी कि तुमने मुझे इतनी जल्दी बुलाया है तो भाई ने नीम के पेड़ को देखते हुए एक लम्बी सांस भरते हुए बताया कि उनके बेटे घर में दो कमरे और बनाना चाहते हैं उसके लिए वे इस नीम के पेड़ को काटना चाहते हैं. और वे रोने लगे. राजाराम जी भी इस बात को सुन कर व्यथित हो गये. वे कुछ बोल ही नहीं पाए सिर्फ अपने छोटे भाई के सिर पर अपना हाथ फेरते रहे.
थोड़ी देर विचार करके वे अपने भतीजों सहित सबको बैठा कर नीम के पेड़ की कहानी सुनाने लगे. कैसे उनके दादाजी को एक महात्मा जी ने ये पेड़ दिया था. और जब उनकी बड़ी बहन की शादी हुई थी तो बारातियों का स्वागत, मिलनी, मामा फेरा, आदि सब में नीम के पेड़ के चबूतरे की भूमिका, उनके बचपन की यादें, पिताजी की मार से बचने के लिए कैसे पेड़ पर चढ़ जाना, दादी का पेड़ के नीचे आराम करते रहना. रिश्तेदारों का आना, मिलना, दोनों भाइयों की बारात का यहीं से निकलना, छुट्टीयों में मोहल्ले के सभी बच्चों का इक्कठा होकर खेलना, इन सब अवसरों पर नीम के पेड़ की हाजरी आदि. सही मायने में ये नीम का पेड़ सिर्फ एक पेड़ नहीं रह गया था इस परिवार का एक सदस्य बन गया था और उनके घर की पहचान भी.
उनकी बातों को सुन कर घर के सभी सदस्य इस बात पर तो सहमत हो गये की इस पेड़ को काटने का निर्णय सही नहीं है. मगर बात फिर भी वहीँ आकर रुक गई कि दो कमरे और बनाने हैं तो क्या करें. तभी सुनील ने खड़े होकर कहा कि हमारे घर के आगे की जगह में से चाचाजी की पिछली दीवार से लगने वाले कोने में दो कमरे बनाने जितनी जगह दी जा सकती है. वैसे भी उस जगह का उपयोग आज भी चाचाजी ही कर रहे हैं. इससे इनकी जरूरत भी पूरी हो जायेगी और हमारा पेड़ भी सलामत रहेगा. चाचाजी बोले भैया जिस दिन आपको जरूरत पड़ी तो… तभी उनकी बात को काटते हुए राजारामजी की पत्नी बोली हमे जब जरूरत पड़ेगी तब की तब देखेंगे आज सुनील की बात सही लग रही है. दोनों देवरानी जेठानी एक दूसरे के गले मिल कर खुश हो रही थी. सुधीर भी इस बात पर अपनी सहमती देते हुए बोला चाचाजी पड़दादाजी के हाथ का लगाया हुआ ये पेड़ हमारे परिवार को अपनी पहचान दे रहा है क्या हम उसके लिए इतना भी नहीं कर सकते. तभी पेड़ पर कुछ हलचल हुई एक बन्दर तेजी से नीचे आया और सुनील तथा सुधीर के सिर पर हाथ फेर कर वापिस पेड़ पर चढ़ गया. राजाराम जी कुछ बोले इससे पहले मोहल्ले के लोग ही बोलने लगे कि ये हमारे पूर्वजों के संस्कार ही है जो आज के समय में भी परिवार के लोग एक दूसरे के साथ साथ इस पेड़ के बारे में भी सोच रहे हैं. सभी की आंखों में ख़ुशी के आंसू थे. राजाराम जी सिर्फ इतना ही बोल पाए कि अब सबको मिठाई कौन खिलायेगा.