नींव में इस अस्तित्व के, सैकड़ों घावों के दर्द समाये हैं, आँखों में चमक भी आयी, जब जी भर कर अश्रु बहाये हैं।
नींव में इस अस्तित्व के, सैकड़ों घावों के दर्द समाये हैं,
आँखों में चमक भी आयी, जब जी भर कर अश्रु बहाये हैं।
दंश उन्होंने हीं दिए, जिन्होंने अपनेपन के छल रचाये हैं,
वरना औरों के समक्ष, हम आज भी कहाँ खुल पाए हैं।
मरहम का भ्रम फैलाकर, रीसते जख्मों पर नमक रगड़ आये हैं,
प्रपंच रचा गया भय का ऐसा, जिससे शब्द हमारे थर्राये हैं।
सपनों के मीठे गीत कभी, मधुबन में हमने भी गाये हैं,
पर चीख़ें लिखी गयीं, श्वासों पर ऐसी, जिसे आज भी भूल ना पाए हैं।
प्रकाशपुंज की दीप्ती से नहीं, अन्धकार से हम टकराये हैं,
शीतल जल की धारा से नहीं, विषमिश्रित जलप्रपात से प्यास बुझाये हैं।
स्तब्ध रह गयी आस्थाएं, तब खुद को हीं कठघरे में खड़ा कर आये हैं,
धर्मक्षेत्र सजाया और स्वयं से स्वयं को जीत कर लाये हैं।
अग्नि सी है अब ढाल मेरी, जिससे अधर्मियों के धर्म चरमराए हैं,
अंतरिक्ष भी मुस्कुरा उठा, जब शस्त्र सम्मान ने स्वयं के लिए उठाये हैं।