निश्छल प्रेम
अंकुर प्रेम का फूट पड़ा
जब मिल बैठे दीवाने दो
रस धार प्रेह की बह निकली
जब मिल बैठे दीवाने दो
प्रेम मंत्र से अनभिज्ञ थे
दो अनजाने इस जीवन में
प्रेम की गंगा निकली फिर
जब मिल बैठे दीवाने दो
रात रात भर तारे गिनना
नियति उनकी बन सी गई थी
स्मरण एक दूजे को करना
आदत उनकी बन सी गई थी
देखा जो पहली बार उन्होंने
लगा जैसे हुए अरमान पूरे
जुड़ा सात जनम से बंधन
जब मिल बैठे दीवाने दो
वह समय कुछ और था
दौर भी कुछ और था
ललक थी पढ़ाई की और
जुनून कुछ कर गुजरने का
इन सबके बीच भी
प्रेम का वो बीज भी
प्रस्फुटित हो गया धीरे से
जब मिल बैठे दीवाने दो
शनैः शनै: समय बढ़ा
उन्होंने भी इतिहास गढ़ा
अपने अपने क्षेत्र में
पारा बुलंदियों का चढ़ा
साल पर साल बीतते रहे
वे ऊंचाइयों को छूते रहे
पुष्पित पल्लवित हुई प्रीत फिर
जब मिल बैठे दीवाने दो
कालचक्र कि यह निशानी
रहेगी सदा याद जुबानी
वक्त ने बदली थी करवट
सामने अधूरी सी थी कहानी
प्रेम के अंकुर फूट पड़े थे
लेकिन दोनों बंधन में जड़े थे
निश्छल प्रेम की धारा थी, बह निकली
जब मिल बैठे दीवाने दो
इन्जी. संजय श्रीवास्तव
बालाघाट मध्यप्रदेश