‘निशा नशीली’
निशा नार के आँचल में, चमकते तारे बिखर गए,
देव सूर्य भी इस बेला में ना जाने किधर गए।
हैं खड़ी दिशाएँ ओढ़ ओढ़नी मल-मल श्यामल सी,
धवल प्रभा संग चंद्र देव भी रजत से निखर गये।
दूर दिशाओं से खग स्व नीड़ों की ओर चले,
कीट-पतंगे करते हैं विचरण नील गगन के तले।
नभ से झर-झर झरें, तुहिन बूँदें स्फटिक सी,
ताल तलैय्या में जलज भी स्व दल को समेट चले।
तारावली भी नाचे नभ मेंं झटक -मटककर,
हर आंगना गलियन मौन सो रहा है पसरकर।
न गउओं की रंभाहट न शिशुओं की खिलखिलाहट,
पशु भी चल पड़े घरों को वन तृण चर-चरकर।
प्रकाश किरण झांकती झरोखों से छुप-छुपकर,
धूप-दीप प्रफुल्लित हैं देवालयों में महक-महककर।
हरश्रृंगार पुष्प आतुर हो रहे धरा समर्पण को,
रात-रानी हो चली सुवासित बहके इधर-उधर।
-गोदाम्बरी नेगी
(हरिद्वार उत्तराखंड)