निशब्द हूँ और शर्मसार भी
धिक्कार जमीर अब धर्म मरा है, मानवता का मर्म मरा है।
आँखो के अंगार मरे है और कायर पहरेदार मरे है।।
राह गलत हो सकती उसकी, पर दिल्ली का स्वाभिमान मरा है।
नारी का सम्मान मरा है, राजधानी का अभिमान मरा है।।
मरी नही है साक्षी देखो, हर साक्षी का विश्वास मरा है।
नारी मात भवानी देखो, उस माता का धीर मरा है।।
जन्म दिया है जिस माता ने, उस माँ का संस्कार मरा है।
उसके दुध की लाज मरी है, उसका आज अधिकार मरा है।।
निशब्द हूँ और शर्मसार भी…
हृदय मे ललकार भरी है, करू विनाश ये आस भरी है।
करुणामय चित्कार भरी है, होते खंजर के प्रहार भरे है।।
लात घूंसो के वार भरे है, मरने के बाद पत्थर के वो प्रहार भरे है।
करूण पुकार को ना सुनकर भी, आते-जाते नर-नार भरे है।।
सोये समाज की नींद मरी है, कायरता की सीख मरी है।
बेटी नही संग बहु मरी है, सोचे गौर से तो ये बात बड़ी है।।
संस्कार विहीन एक कौम खड़ी है, अंधकार मे हर साक्षी पड़ी है।
सोच समझकर ये जिहाद बढ़ा है, अंधकार मे हर लोग खड़ा है।।
निशब्द हूँ और शर्मसार भी…
दे संस्कार अब घर-घर मे और धर्म का ज्ञान दे हर घर मे।
मिल कर रहे अब घर-घर मे, खुलकर रहे अब हर घर मे।।
लव जिहाद का ध्यान रखे हम, बच्चों को सावधान रखे हम।
रखे धर्म से बांध उन्हे हम और बच्चो के पहरेदार बने हम।।
निशब्द हूँ और शर्मसार भी…
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“ललकार भारद्वाज”