निर्धनता एवं विलासिता
हमारा
नारायणदास
तंगी, गरीबी से
सफेद फटी
चादर ओढ़े
पेट
सिकुड़कर
जली चमड़ी
के समान
प्रभा की वेला
मवेशियों
गाय
भेड़
बकरियों के पीछे
टुक टुक चलता
मोटी बाजरे की रोटी
नमक,प्याज की गांठ
को सुदामा की भांति
अपने गमछे
में छिपाकर
चरागाह की और चलते हुए
सहसा
मुझे देखकर
सीताराम सीताराम
कहकर
अनायास ही
हजारों आशीर्वाद देकर
अपने पन
से बड़-बड़ करते हुए
पूरे परिवार का हाल चाल
लेता।
मैं सोचता
हे ईश्वर
आपने इसकी
आत्मा में
इतना अनुराग
दया
करूणा
अमृतरूपी
भावों कैसे बोकर
अंकुरित कर
उर में स्थायी रूप से
कैसे रोपित कर दिया ?
क्यों भर दिया?
कठिन परिश्रम
शक्ति, धैर्य का प्रतीक
रामदीन
भोर का सूचक
मुर्गे की बांग
सुनकर
उठकर
कुदाल के साथ
खेत पहुंचकर
ईमानदारी से
परिश्रम करता
कठोर श्रम
से उदित
पसीने की बूंदें
भाल से होकर
सम्पूर्ण देह को
भिगोकर
नंगे पांवों का स्पर्श कर
खेत की उड़ती रज
का सानिध्य पाकर
सम्पूर्ण शरीर पर
सफेद उबटन
स्वत:
लेपित कर
पसीने को
सुखा देती
और उसकी
थकाबट को
पल भर में
भगा देती।
तपती दोपहरी
घर लौटते समय
स्यापा गाय का भोजन
घास का गट्ठर
सिर पर रखे
धैर्य से
बोझ को सहते हुए
मुझे देखकर
ठिठकर
पूछता
रमेश जी
कैसे हैं
स्वयं को स्नेह
की गंगा में
बहाकर
गट्ठर के बोझ को
भूल जाता
मैं फिर सोचता
हे ईश्वर
इसके मानस में
सहजता
निर्मलता
पवित्रता
कैसे उदित हुई
गरीव
बंचित
कृषक
होकर भी
मनुजता के
अमृतुल्य
भाव
रामदीन के
रोम-रोम में
कैसे सृजित
और क्यों
सृजित कर दिये।
गांव का गोवरा
मजदूर
अनपढ़
अंगूठा छाप होकर भी
अपने दृष्टिहीन
माता-पिता को
नहलाता
कपड़े धोता
प्रतिदिन
उनके शरीर को
नवजात शिशु की भांति
तेल की मालिश कर
सहलाता
इठलाता
कभी-कभी
स्वयं भूखा
रहकर
अपना निवाला
ईश्वरीय शक्ति के
प्रतीक
माता-पिता को
खिलाता
और बृद्वावस्था
में अनियंत्रित होकर
शरीर से
निकले
मल-मूत्र
को पवित्र समझकर
मुस्कुराते हुए
स्वयं साफ करता
उसकी धर्मपत्नी
रेवती
होलिका पर
एक साड़ी पाकर
पति को परमेश्वर
मानकर
स्नेह कर
दुलारती
प्रणय की पराकाष्ठा
को पारकर
कष्टों को सहकर
पति के साथ
कन्धे से कन्धा मिलाकर
सत्यभान
की सावित्री
वन जाती|
हे ईश्वर
वहीं
लोभी
कपटी
आडम्बरी
भृष्टाचारियों
के पास धन
सुगमतापूर्वक
पहुंचकर
विलासिता
का जीवन
जीकर
गरीबों
को शोषित कर
बेशर्म पौधे
की भांति
पल्लवित होकर
लहलहाते हैं
हे ईश्वर
इतनी भिन्नता
क्यों करते हैं?
ईश्वर वोले-
तुम कवि हो
समझ सकते हो
अधिक धन
पाप का सूचक है
जो मनुष्य को
धनवान
बनाकर
मनुज को
मनुज से दूर कर
मानस में
अभिमान
घमंड
क्रोध
लालच
लोभ
भय को बढ़ाकर
मुझसे
बहुत दूर होकर
निरन्तर
पाप की सीढ़ियां
चढ़कर
रात्रि काल में
निद्रा
की प्रतिक्षा में
ए सी रूम में
मखमली
पलंग पर
करवटें बदलकर
नींद की गोलियां
खाकर
लोभ के भंवरजाल
में फंसकर
और अधिक धन
कमाने के फार्मूले
ढ़ूढ़ता है
और हल्की
झपकी की प्रतिक्षा में
स्वयं को कोसता है|
दूसरी ओर
मेरा प्रिय
नारायणदास
रामदीन
गोबरा
मजदूर
चारपाई
बिस्तर से
बंचित
होकर भी
स्वस्थ
मस्त
प्रसन्नता
पाकर
निद्रा की देवी
स्वयं
उनके झोपड़ों
में पहुंचकर
बसुधा की गोद में
चिन्ता
एवं
भय से मुक्त कर
मां के समान
थपकियां देकर
सुला देती है
और प्रभा की
प्रथम वेला
मुर्गे की वांग के साथ
जगा देती है।
स्वरचित
रमेश त्रिवेदी
कवि एवं कहानीकार
नरदी, पसगवां, लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश