निर्जीव षड्यंत्र
झाड़ू लगायी जा जाये या कचरा समेटा जाये ।
इधर उधर भागते हैं धूल के कण
और छोटे छोटे तिनके
झाड़ू के हाथ नहीं आते
छिप जाते हैं कहीं दूर
बहती हुई हवा के साथ
या झाड़ू से समझौता कर
उसी में मिल जाते हैं
छल करने में माहिर ये कण
कहाँ कहाँ चले जाते हैं
समय के साथ कहीं भी
हम समझते हैं सब साफ हो गया
ये आड़ में छिपे देखते हैं
आदमी की बेबसी से खेलते हैं
अगले दिन नई जगह खोजते हैं
जाना नहीं चाहते ,
स्थान से इतना प्यार
घर नहीं छोड़ना चाहते
वहीँ रहते हैं नए साथियों
के साथ ,
शांत और गम्भीर
हम समझते हैं , हम सजीव ही
कर सकते हैं षड्यंत्र एक दूसरे के खिलाफ
भूल जाते हैं और भी हैं
हमारे बाप
भले वे निर्जीव हों
धूल के कण या कचरे की तरह
किसी को छोटा मत समझो
विवेक का पौंछा लगाओ
छिपी हुई गन्दगी हटाओ
चाहे वो घर की हो या बाहर की ।।