“निराशा”
निराशा से क्या होगा हांसिल ?
क्या तेरी सोई क़िस्मत जाग जायेगी?
हताशा से क्या बनेगा तू क़ाबिल?
क्या मंज़िल ख़ुद तुझ तक चलकर आयेगी?
ये हँसनें और रोनें का मौसम है।
ये आशा और निराशा का संगम है।
यहाँ कोई भीग रहा है खुशियों की बारिशों में,
तो कोई गमों के पसीनों से तर है।
फ़िर क्यों गहरी उदासी में खोया है?
न जागा है और न सोया है।
ये ज़िंदगी का दस्तूर है, मेरे दोस्त!
पाया वही यहाँ कुछ है, जिसनें कुछ खोया है।
-Rekha Sharma “मंजुलाह्रदय”