निन्यानबे के फेर में!
यूं तो घर गृहस्थी को चलाने के फेर में,
लग जाते हैं हम अंधेर में!
सब ही जुटे पड़े हैं,
निन्यानबे के फेर में!
मजदूर मजूरी करता है,
थोड़ी ही हेर फेर करता है,
कभी बीड़ी सुलगाएगा,
कभी लघुसंख्या को जाएगा,
इससे ज्यादा क्या कर सकता है,
और ऐसे ही परिवार का पेट भरता है!
नौकरी पेशा ऐसा क्या कम करते हैं,
अपने काम से इतर,
वह इधर-उधर डग भरते हैं,
वेतन भी ठीक ही मिलता है,
पर इतने से काम कहां चलता है,
वह भी घर गृहस्थी चलाने को,
भटकते हैं कुछ और कमाने को!
वह जो कुछ बड़े ओहदे दार होते हैं,
वेतन भी ठीक ठाक ही लेते हैं,
उन्हें सुविधाएं भी भरपूर हासिल है,
पर उन्हें भी कहां संतुष्टि मिलती है,
बड़ी बड़ी डील पर उनकी टकटकी लगी रहती है!
छोटे बड़े कारोबारी,
वो भी थोड़ा बहुत कमाते हैं,
और अधिक कमाई का प्रयास करते हैं,
पर इतना भर ही करते हैं,
थोड़ी मंहगाई को भुनाते हैं,
और दो की जगह तीन वसुलते हैं,
या थोड़ी सी सौरटेज दिखाते हैं,
आवक को कम बताते हैं,
और फिर ड्योडे की जगह दो गुना बनाते हैं!
अब बड़े बड़े उद्योग घरानों वाले,
लाखों करोड़ों कमाने वाले,
क्यों इतना कमाते हैं?
क्या उनके घर वाले ज्यादा खाते हैं?
नहीं साहेब – कतई नहीं,
वह तो हमसे भी कम खाते हैं,
किन्तु सुविधाएं बड़ी जुटाते हैं,
कार- बंगला,नौकर -चाकर,
घरों में काम करते हैं आकर,
घुमना -फीरना ,
आना जाना,
बच्चों को बोर्डिंग में पढ़ना,
यही ध्येय होता है इनका,
खुब कमाना,खुब जुटाना,
घर परिवार पर उसे लुटाना,
उन्मुक्त भाव से ये कमाते हैं,
वारे न्यारे ये कर जाते हैं!
इनसे कौन हिसाब करे,
किसमें है इतनी हिम्मत जो इन पर हाथ धरे,
यह तो बड़े कर दाता हैं,
सरकारों के निर्माता हैं,
यह चाहें तो दान करें,
यह चाहें तो दांव चलें,
इन पर हम सब निर्भर रहते हैं,
यह जैसा चाहें वह सब करते हैं!
अब जरा उन पर भी गौर करें,
जो वेतन से दूर हैं,
खेती बाड़ी में जुटे हुए हैं,
खुन पसीने से भीगे हुए हैं,
उनके हिस्से में क्या आता है,
चार छः माह तक फसल उपजाता है,
तब जाकर बेचने को जाता है,
और अपने भाव नहीं,
उनके ही भाव पर बेच आता है,
भाव सही मिले या फिर कम,
नहीं रखता वह इतना दम,
कोई कुछ कोर कसर बाकी है,
जो मिला, उसे लेकर लौट आता है,
फिर कहां किसके कितने देने हैं,
उसके देने में जुट जाता है,
यदि कुछ बचा खुचा रहा अगर,
तो उसमें चलाता है घर,
और यदि कम पड़ जाता है,
तो फिर उधारी पर निकल आता है,
इसी तरह उसका काम चलता है,
इसी तरह उसका परिवार पलता है,
पर उसके भाग्य में कहां लिखा है,
जो वो निन्यानबे के फेर में पड़ा है,
उसके हाथ तो रुपए के बारह आने भी नहीं आते हैं,
हर बार लगाएं हुए पैसे कम पड़ जाते हैं,
कभी ओला कमर तोडता है,
कभी सुखा पनपने नहीं देता है,
कभी जंगली पशुओं की मार पड़ती है,
कभी खड़ी फसल जल पड़ती है,
रही सही बाजार पुरी कर लेता है,
उसका हाथ तो रिता का रिता (खाली का खाली) ही रहता है!
अब उन निर्दयियों से रुबरु होते हैं,
जो काली कमाई में जुटे रहते हैं,
इन्हें अवसर की तलाश रहती है,
इनके पास यह कला होती है,
यह जब जिसकी आवश्यकता होती है,
उसकी खरीद कर जमाखोरी करते हैैं,
यह लोगों की मुसीबत को भुनाने में लगे रहते हैं,
यह मुनाफे की जगह,काली कमाई करते हैं,
इनका नहीं कोई ईमान धर्म होता है,
सिर्फ पैसा बटोरना ही काम होता है,
यह निन्यानबे के फेर से भी आगे निकल जाते हैं,
यह एक के सौ,सौ के हजार, और हजार के लाख बनाते हैं,
यह पाप पुण्य से उबर आते हैं,
जब मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में जाते हैं,
या फिर गंगा में डुबकी लगा आते हैं,
पर क्या यह अपनी आत्मा को शान्त रख पाते हैं,
नहीं,नहीं , कतई नहीं,
यह तो वहां पर भी छलने को जाते हैं,
और स्वयं को ही छल कर आते हैं,
यह नौट कमाते हैं,नौट बनाते हैं,
नौटों के लिए यह मर मिट जाते हैं,
पर नौट कहां सदा काम आते हैं,
यहीं पर धरे रह जाते हैं,
जाते तो सब खाली हाथ ही जाते हैं,
यह बुद्धि विवेक नहीं जगा पाते हैं!
निन्यानबे के फेर में,
अंधेर किए जाते हैं!!