निकृष्ट कवितायेँ !
व्यापक नही हैं
संकुचित हैं अब,
‘कविताओं का दायरा’
यहाँ अब भी जद्दोजहद होती हैं
घंटों…
छंदों में, तुकांत में, मात्राओं में
कई बार..
निसंदेह यह क्षति है साहित्यिकता की
जिसमे आत्म संतुष्टि है
पर जन संतुष्टि गायब है
अजी छोड़िये न साहब..
हिंदुस्तान के गांवों में आइये
गलियारों में आईये
गरीब के छप्पर में आइये
और किसानों की बेटियों के
कन्यादान में आइये..
आम आदमी के अंदर घुसिये
पूरी तरह…
जहा न तो साहित्यिकता है
न ही छंद.. न बंदिश
हैं तो एक खुला आसमान और
एक कोरा कागज़
जहा नज़र आएंगी तुम्हे
तुम्हारी ही कविताएं
भद्दी! नीरस! निकृष्ट!
– नीरज चौहान