निकाल देते हैं
निकाल देते हैं
रिश्तों का संतुलित अनुपात निकाल देते थे।
प्यार से नफ़रत की औकात निकाल देते थे।।
जिस तरह निकाल देते हैं दालों से पत्थर-
पुराने लोग बिगड़ी हुई बात निकाल देते थे।
इंसानियत मोहताज नही थी सुविधा की-
गर्मी में गत्ते की हवा से रात निकाल देते थे।
पहचान कर चोट जिस्म की है या रूह की-
मिलकर मुश्किल हालात निकाल देते थे।
इकट्ठे हो के मोहल्ले में बिन किसी मुहूर्त के-
बच्चे गुड्डे-गुड़ियों की बारात निकाल देते थे।
घुटते नही थे मन ही मन किसी बात को ले-
साथियों के बीच सारे जज़्बात निकाल देते थे।
उड़ जाते थे शामियाने जब किसी ग़रीब के-
सब लोग मदद की कनात निकाल देते थे।
अब ख़ुशियाँ नही बाँटी जाती बस्तियों में-
पहले खुशियों की सौगात निकाल देते थे।
वो वक़्त था सिनेमा के किरदारों का हस्ती!
छोटे से संवाद में पूरे ख्यालात निकाल देते थे।
स्वरचित कविता
सुरेखा राठी