निःशब्दिता की नदी
बहने दो निःशब्दिता की नदी में, समंदर शोर का मुझे भाता नहीं है,
रहने दो ठहराव के इस दलदल में, सूखी जमीं का वेग साथ निभाता नहीं है।
बिखरने दो क्षितिज के आँगन में, सितारों भरा आसमां मुझे बुलाता नहीं है,
जलने दो वियोग की आग में, बादलों से उतरता संयोग जिसे बुझाता नहीं है।
तड़पने दो पीड़ा के जंगल में, संवेदनशीलता का मरहम मुझे बचाता नहीं है,
भटकने दो तन्हाईयों के महल में, स्याह वीराना मुझे डराता नहीं है।
विचरने दो पतझड़ों के मौसम में, गलीचा फूलों का मुझे अपना बनाता नहीं है,
सिसकने दो क्षणभंगुरता के मर्म में, ज्ञान शाश्वतता का मुझमे समाता नहीं है।
उमड़ने दो कल्पनाओं के नभ में, धरातल यथार्थ का मुझे सुहाता नहीं है,
उलझने दो गांठों के रण में, छल दुर्गमता का मुझे झुकाता नहीं है।
दरकने दो जीर्ण दीवारों के मंडल में, एहसास नवीनता का मुझे रिझाता नहीं है,
बरसने दो स्वयं के चित्तवन में, आडम्बर शब्दों का मुझे डिगाता नहीं है।
सिमटने दो अश्रुओं के जल में, मिथ्या भावनाओं का दंगल मुझमें मुस्काता नहीं है,
महकने दो कोरे सपनों के जीवन में, सूरज आयामों का मुझे जगाता नहीं है।