नास्तिक सदा ही रहना…
नास्तिक सदा ही रहना…
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मन से अहं निकाल लो,
फिर नास्तिक सदा ही रहना…
खुद को यदि तुम जान लो,
फिर धर्मविमुख ही रहना।
माता-पिता गुरु हरि रूप है,
उन्हें श्रद्धा के पुष्प चढ़ाओ ,
करुणा के भाव जगा लो,
फिर नास्तिक सदा ही रहना…
बहस और विवाद से,
मिलते कहाँ प्रभु हैं ,
हर जुर्म का हिसाब तो,
करते यहाँ प्रभु हैं।
नफरतों के जहर को,
तुम प्रेम से मिटा दो ,
इसी सत्य को स्वीकार लो,
फिर नास्तिक सदा ही रहना…
हलाल हो या झटका,
बिलखते तो पशु बेजुबां हैं,
कैसे मिलोगे खुदा से,
तड़पते जो तन बे-इंतिहा हैं।
ढाई अक्षर जो प्रेम का,
सिखलाता है धर्म मानवता ,
इसी राह पर चलो ना,
फिर नास्तिक सदा ही रहना…
आडम्बरों से किसी ने,
यहाँ पाया नहीं है ईश्वर ,
गंगा में तुम नहाओ या
जमजम का जल लगाओ ।
भक्तवत्सल की छवि तो,
तेरे अंतस में छिपा है,
अंतस को बस निहार लो,
फिर नास्तिक सदा ही रहना…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १० /०७/२०२२
आषाढ़, शुक्ल पक्ष ,एकादशी ,रविवार ।
विक्रम संवत २०७९
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