नालिश भी कर नहीं सकता
क़तरा क़तरा – कटती है
तेरी यादों की मौजें
जो बेइख़्तियार पेशानि पर मेरे
पसीने की बूँद बूँद बन के ठहरे
नालिश भी कर नहीं सकता
तू तो ख़ुद ही ग़मज़दा
और अज़ाब से गाज़िदा
है गैरों की महफ़िल की
बाज़ीचा हुई है जब से
द़ुआ कर गर आब-ए-तल्ख़
हमारा जो टपका फ़साना नारास्ती का तेरा
हो कर कहीं फ़ुगां ग़ैहान में ना फैले
जबीं पर मेरे ना उभरे
तेरी नाआश्ना होने के किस्से
अतुल “कृष्ण”
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नालिश= आरोप, शिकायत
नाआश्ना= अजनबी
फ़साना = कहानी, चर्चा
नारास्ती= कपटता
फ़ुगां= स्र्दन, गुहार
आब-ए-तल्ख़= कड़वा पानी, आंसू, शराब
जबीं = माथा, ललाट, मस्तक
नफ़्स= आत्मा, सार, प्राण