नारी
विधाता,
जब समेट नहीं पाया…
अपने अंक में….
संसार!
प्रकृति ने
उठा लिए-
सारे भार!!
स्वयं जब दबने लगी….
बिखरने लगी…
स्वयं ही सिहरने लगी….
तब
खुद को कर दिया व्यक्त-
नारी देह में।
फुट पड़ी….
शाखाओं में,
बेटियों में..
माँओं में…
विश्व भर की कलाओं में।
विधाता,
जब पुरुष होता है-
युद्ध करता है!
जब स्त्री होता है-
सृजन करता है!!
पुरुषों के लिए,
देह-एक विभाजन रेखा है!
मैंने नारी को अस्तित्व संभालते देखा है!!
–कुमार अविनाश केसर
मुजफ्फरपुर, बिहार