नारी
नारी
हर युग को झेला है जिसने
हार नहीं पर मानी वह नारी।
स्वाभिमान को गया दबाया
सिर नहीं झुका वह है नारी।
जीवन के दो पहलू कहलाते
फिर भी इक ऊँचा इक नीचा।
विष के प्याले पी पी कर भी
अमृत से जग को नित सींचा।
कंटक पथ के चुन चुन काँटे
चली हमेशा आगे ही नारी।
शक्तिमान के हाथों में सत्ता
सदा विजय फिर भी पायी।
कैद रही जो युगों युगों तक
उसने ही इतिहास बनायी।
जननी है वह सृष्टि की सारे
जगजननी कहलाती नारी।
देव झुकें जिसके चरणों में
माता का वह रूप निराला।
फिर भी लोग समझ न पाये
उसके ही हिस्से आती हाला।
अँधियारे में कर दे उजियारा
नाम है उसका जग में नारी।
कांटों पर चलकर भी जो है
परहित पुष्प संजोती रहती।
आँच न आने देती अपनों पे
खुद पर हजार दुख है सहती।
सुन्दरतम दिल से तन से भी
अनुपम सी वह कृति है नारी।
जगती का है सम्मान उसी से
नारायणी कहलाती है नारी।।
डाॅ सरला सिंह ‘स्निग्धा’
दिल्ली