*नारी हूं मैं*
नारी हूं मैं
नारी हूं
मैं क्या नहीं कर सकती…
उलझे हुए मन को,
पढ़ सकती हूं मैं।
उजड़े घरोंदे
सहेज सकती हूं मैं।
बिखर बिखर कर खुद को,
समेट सकती हूं मैं।
नारी हूं मैं क्या नहीं कर सकती…
धारा के विपरीत चलने का,
दम रखती हूं मैं।
आंधियों में भी ना डिगे,
यूं कदम रखती हूं मैं।
डूबती कश्ती को किनारा मिले,
वह हुनर रखती हूं मैं।
नारी हूं मैं क्या नहीं कर सकती…
बीज से मानव,
बना सकती हूं मैं।
बूंद से सागर,
बना सकती हूं मैं।
तिनके से साम्राज्य,
बनाने की कला रखती हूं।
नारी हूं मैं क्या नहीं कर सकती…
दया, प्रेम, सेवा,
सभी भाव मेरे।
तिरछी नजर पढ़ने का,
इल्म रखती हूं मैं।
दुर्गा भी काली भी,
शक्ति भी मुझ में।
अबला नहीं कहीं से,
यह गुरुर रखती हूं मैं।
नारी हूं मैं क्या नहीं कर सकती……
आभा पाण्डेय