नाराज़ वो क्यों बैठे हैं एक गिला ले कर —- गज़ल
गज़ल
नाराज़ वो क्यों बैठे हैं एक गिला ले कर
कह दें तो चले जायें गे उसकी सजा लेकर
दौलत शोहरत दोनो मंज़िल ही नही मेरी
जीना हैखुदा मुझ को इक तेरी दया ले कर
मजहब की आंधी ने घर कितने ही जला डाले
दुख दर्द लिये बैठे घर लोग जला ले कर
दिन रात करें सेवा वो प्यार मुझे करते
बीमार पडूँ तो झट आते हैं दवा लेकर
अरमान बडे दिल मे पूरे जो करेंगे हम
मंजिल मिल जायेगी लोगों की दुआ ले कर
जिनसे भी वफा करते वो ही बेवफा निकले
जब आग लगे घर मे आते थे हवा लेकर
जो चाहत जीवन की तकदीर कहां देती
जीवन तो बिताना है कर्मों की सजा ले कर
कजरारे नयन उसके हैं होठ गुलाबी से
हिरणी सी वो चाल चले कुछ हुस्न अदा लेकर
जिसने भी शरारत की समझे न हमे कमजोर
हम मार गिरायेंगे दुश्मन का पता लेकर