नादान परिंदे
नादान थे हम…. कुछ अच्छा बुरा न समझ आता था…….
जिसने दे दी चीज बस वही हमारा चाचा था…..
खेलते थे सारा दिन …..सुबह शाम सोच पाता था…
पर क्या करते हैं हमें समय भी तो देखना ना आता था…..
शरारती तो बहुत थे …….जो मन हो बस कर जाना था…
जब देखा पापा को आता मां पीछे छुप जाना था….
दादू को आते देख ….. चौखट पर रुक जाना था …
फिर उनको पैसों के लिए मस्का भी तो लगाना था….
बेफिक्र जिंदगी थी …..अपनी बे मकसद बस जीना था…..
लोगों की बातों से हमको ना कुछ लेना देना था…..
याद है मुझको मां के पास रखकर बम को फोड़ा था…..
उसी दिन मां एक डंडा मुझ पर तोड़ा था……
बहन से लड़ना …. फिर प्यार से उसको मनाना था…… आखिर मुझे उसके साथ खेलने भी तो जाना था…..
दादी की कहानी थी ….परियों का फसाना था ….
गोद में सर रखकर उनकी बस हमको सो जाना था……
इतना रोने के बाद भी…. एक टॉफी से मान जाना था…..
सच में वह बचपन भी कितना सुहाना था……