नहीं चल रही राजनीतिज्ञों की दुकान
आइये कद्रदान सुनिए तो ज़रा मेरी मेहरबाँ
अब बड़े दिनों बाद आ रहे फिर से मतदान
अब शक्ल दिखेगी पांच साल गुजर गए है
नहीं तो चल रही थी राजनीतिज्ञों की दुकाँ
लोकतन्त्र का महापर्व फिर से आ रहा अब
जनता राजा और राजा पैरों में होंगे श्रीमान
नोट लो वोट दो पर सत्ता तक तो पहुँचा देना
फिर से हो जायेंगे नेताजी तो हमारे अंतर्ध्यान
मेखानो में छलकते थे अब तक इनके पैमाने
अब फिर से सपनें चढ़ने लगे है इनके परवान
सपनो में कुर्सी नजर आती तो दिल धड़कता
पेरो में इनके झुक जाता हो जैसे फिर आसमाँ
सायकिल हो या हाथ ,कमल हो या हाथी यारों
लालटेन बुझा दो झाड़ू लेकर झूठी इनकी जुबाँ
अशोक चला जा तू भी वोट डालने अपना अब
पार्टिया तो सब यहाँ ऊँची दूकान फीके पकवान
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से