नसीब
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
* नसीब *
टूट जाना हो सकता है, मेरी किस्मत होगा ।
मगर फितरत नहीं, ये तो समझना होगा ।
मैं भी इंसान हूँ , गलतियाँ होंगी जरूर ।
कुदरत की कक्षा का, यही तो है दस्तूर ।
हर बार करूँ , ये तो एक फ़साना होगा
मगर फितरत नहीं, ये तो समझना होगा ।
आदतन आदमी पैदाइशी, लापरवाह हिकमत से ।
सीखता कर – कर के गलतियाँ कुदरत से ।
अब ये इल्जाम, हमीं को तो मिटाना होगा ।
टूट जाना हो सकता है, मेरी किस्मत होगा ।
मगर फितरत नहीं, ये तो समझना होगा ।
तिरा रूठ कर यकसां चले जाना अजीब था ।
पूरी कायनात में , मैं ही नहीं बसनसीब था ।
और लोगों को भी तूने इस तरहाँ सताया होगा ।
अब ये इल्जाम, हमीं को तो मिटाना होगा ।
टूट जाना हो सकता है, मेरी किस्मत होगा ।
मगर फितरत नहीं, ये तो समझना होगा ।
आज नहीं तो कल सबने चले जाना होगा ।
वल्लाह अब इसमें भी, बे-अदबी का बहाना होगा ।
करूँ मेहनत दिल से , ये कायदा मेरी फितरत ।
मिले शोहरत , वरदान बन कर ये उसकी रहमत ।
अब सभी की पसंद बन पाना, तो मुश्किल होगा ।
टूट जाना हो सकता है, मेरी किस्मत होगा ।
मगर फितरत नहीं, ये तो समझना होगा ।