नशे की लत
उसकी इक प्रसन्न दुनिया थी;
मुस्काता था बाप,
और,
मुस्काती थी माँ;
पत्नी थी संतुष्ट,
प्रेम से;
बच्चे भी आह्लादित रहते।
नज़र लग गयी किंतु एक दिन,
इस कुनबे को।
जब से वह
कुछ लोगों की संगति में आया।
…… ……
धीरे-धीरे,
बढती रही नशे की लत भी,
झूठ बोलकर लिये रूपये घर वालों से;
फिर
वह लगा चुराने पैसे घर वालों से;
लेता रहा उधार बचे अपने मित्रों से,
कर्कश कुछ व्यवहार हो गया।
छिनती रही शांति फिर घर की,
जो थी प्यारी।
…… …….
धीरे-धीरे चला गया सम्मान सभी में,
पड़ा अकेला अपनों में भी धीरे-धीरे;
….. ……
घर के अब हालात सुनो कुछ,
मां को खांसी,
पिता पैर से चलने में दिक्कत पाते थे,
पत्नी की साड़ी में भी पैबंद लग गये,
फीस न दे पाने से मुन्नी घर पर रहती।
…… ……. ……
और,
एक दिन,
वह भी आया;
बच्चे को बुखार था आया,
तपी देह औ मां घबरायी बेवश होकर
किन्तु
शाम को दवा बिना ही चला गया वह;
कौन? क्या करे?
वह तो धुत्त नशे में,
सोया था बाजार के,
बदबू भरे सड़े कूड़े पर,
बेसुध होकर।।।
( काव्य संग्रह-बात अभी बाकी है)
@अशोक सिंह सत्यवीर