नशा रहता है इस दर्द का।
दौर वो भी मुश्किल था, आँखों के आगे सपनों का जल जाना,
कोशिशें कितनी भी करूँ, पर धड़कनों का धड़कने से कतराना।
सहमी सी वो साँसें जो, चाहती थी कि हो जाए मुकम्मल वो अफसाना,
पर किस्मत ने अधूरेपन के धागों से बुना था, हमारा तराना।
बंद आँखें चाहती थी कि मिल जाए कैसे भी नींदों का ठिकाना,
जाने किसने कह दिया था कि आसां होता है, यूँ हकीकत से खुद को बचाना।
कहाँ बंद होता था खुशियों की तलाश में, अतीत में खुद को गुमाना,
और फिर वर्त्तमान की मंजिल देख कर, आँसुंओं के बवंडर का छा जाना।
आदतों में शुमार हुआ तब, हर आज में बीते कल के बोझ को उठाना,
कुछ अलग था उस जले सपने की चुभन से एक रिश्ता नया सा बन जाना।
आसां सा लगने लगा आंसुओं को तराशकर मुस्कुराहटों की अदाओं को बढ़ाना,
शब्दों को खामोशी में कैद कर, जज्बातों के संदूक पर ताले को चढ़ाना।
अब तो हालात यूँ हैं कि तय रहता है, घर आये हर सपने को ठुकराना,
नशा रहता है इस दर्द का, जो नामुमकिन है अब मुझसे छीन पाना।