नव वर्तिका जलाएं
नव वर्तिका जलाएं
दीपों की बस्ती में आकर,
देखा मैंने घना अंधेरा।
दीपक सारे ओंधे- सीधे
सब को अंधकार ने घेरा।
बुझी हुई बाती थी उनमें,
और नेह का नाम नहीं था।
सब कुछ लुटा दिया औरों पर,
वहां स्वार्थ का काम नहीं था।
सदा रोशनी दी औरों को,
खुद को पल-पल सदा जलाया। अपने तन का लहू निचोड़ा,
तन का कण-कण सदा गलाया।
उन दीपों का हृदय तोड़ते,
नहीं किसी को लज्जा आई,
उनके दुखित, व्यथित जीवन पर, आंख कभी भी न भर आई।
इन दीपों को गले लगा लें,
मानवता का धर्म निभाएं ।
नेह भरें इनके आंचल में,
फिर से नव वर्तिका जलाएं।
आओ सब मिल दीप जलाएं।
जगमग जगमग दीप जलाएं।