नव पल्लव आए
नव पल्लव आए तन तरु में
जब पतझड़ से अवकाश मिला
रोमांचित रोमावली अजिर
उर उपवन में नव कुसुम खिला
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फिर से नूतन आशा जागी
लगता उपलब्धि पुनः सम्भव
अब मिलन अगोचर से होगा
श्रवणों में गुंजित होता रव
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इस अनहद रव का चमत्कार
यह मुझे नहीं सोने देता
मेरा अनमोल समय मुझसे
यह बरबस नित्य छीन लेता
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अब पथिक इसी पथ का हूँ मैं
यद्यपि न रंच मजबूरी है
पर जब तक मैं न बढ़ूँ आगे
लगता साधना अधूरी है
महेश चन्द्र त्रिपाठी