नवगीत
तुम जो मानो !
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माना ! हम कबीर हैं अक्खड़,
तुम जो मानो.
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लाग लपेट बिना रहने की,
बनी हुई है आदत,
सम्भव है, हमरी बातों से,
कुछ, हो जाएँ आहत,
किन्तु, नहीं हम इस समाज में,
बने निठल्ला मक्कड़,
तुम जो मानो !
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पाखंडों के प्रबल विरोधी,
सात्विकता के माँझी,
जो मन आए, कुछ भी कह लो,
नहीं पूरते साँझी,
कहनेवाले, तो कहते हैं,
एक आदमी फक्कड़,
तुम जो मानो !
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अपने मन के, लघु अनुभव के,
पौधों को हम सींचें,
नहीं बनावट, अंदर पालें,
कोई लीक न खींचें,
बारहखड़ी, नहीं जीवन की,
अब तक समझे लक्कड़,
तुम जो मानो !
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शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’.
मेरठ